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वर्षमान भत्तामर रवि किरण मण्डल के निकट ज्यों तिमिर डट सकता नहीं, चिन्तामणि के सामने ज्यों दुःख टिक सकता नहीं।
त्यों नाथ ! तेरे निकट हिंसादिक फटक सकते नहीं।
ये दोष हैं निर्दोष तुम हो यह विदित हैं सब कहीं ॥२५॥ जो इन्दु मंडल सा सलिल सा सुधाफेन सुपुञ्ज सा,
विकसित मनोरथ पुर का जो एक विस्तृत कुंज सा। है, नाथ! ऐसे धर्म का तुमने निरूपण है किया।
होता भविकजन कमल का विकसित प्रभो ! सुन कर हिया ॥२६॥ अति दूर से भी चन्द्र ज्यों निज किरण के उत्कर्ष से,
करता सदा कैरव बनी को युक्त अतिशय हर्ष से। जिननाथ ! वैसे हो तुम्हारा कर रहा गुणवृन्द है,
सब भक्त जनता के हृदय सदा अति बानंद है ॥२७॥ जिनवर! सुधाकर किरण का संयोग पाकर, सर्बथा.
होता द्रवित जग में विदित यह चंद्रकान्त मणि यथा। वैसे तिहारी परम महिमोपेत करुणारस भरी,
पावन कथा का श्रवण कर होते द्रवित हैं क्रूर भी ॥२७॥ शिवमार्ग से वंचित, दुखों की खान यह कलिकाल है,
है हीयमान सदा विषय के जाल से विकराल है। इसमें तिहारी शिव विधायक देशना के पान से,
पाते भविक जन शुद्ध आत्मिक शान्ति वच दुर्ध्यान से ॥२८॥ गुणगणसदन! मुनिवर रमण ! जिनवर ! जगतरक्षक! विभो!
देवाधिदेव ! विमुक्तिस्वामिन ! भविकनाथ! सुनो प्रभो। करके कृपा हमको जगाओ ज्ञान के उत्कर्ष से.
क्या दूर से भो विधु न करता कुमुद को युत हर्ष से ॥२६॥ पा जब सहारा आपका प्रभु ! शोक विन तरु भी हया,
जग में इसी से ज्यात नाम "अशोक"यों उसका हवा। तब क्या तुम्हारे चरण के अवलम्ब से भविजन नहीं,
नि:शोक हो सकते खपा विधि भले वे होवें कहीं ॥३०॥ मणिमय सिंहासन पर चमकते नाथ ! तुमको देखकर,
देवावर हो चकित चित यों चितते हैं विशवर।
क्या? नहिं, अरे ! वह मग कलंकित गात है,
तो सूर्य है क्या ? नहिं मला वह तो प्रचण्ड प्रताप है ॥३॥ है कान्ति का यह पुंज प्यारा प्रथम तो जाना यही,
फिर व्यक्त आकृति मात्र से सामान्य जन माना सही।