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बनेकास
समझते हैं तो सुपुष्ट प्रामाणिक तर्को द्वारा मेरा मार्ग- सदा काल नवयौवन रहे, कोमल देह सुगंध अति बहे ॥ दर्शन करें, मैं अपनी भूल सुधार कर लूंगा।
कठिन नीवि उर कुच कलस विराज, यह निर्विवाद है कि "बिहारी सतसई" शृंगारिक
मुख की ज्योति कोटि ससि लाज। कृति है और 'धर्मसार सतसई" विशुद्ध तात्विक एवं
कटि सताईस देवी मत हरनी, धार्मिक कृति है अतः वैसे तो कोई मेल नहीं खाता है पर .
भोग विलास रूप सुख धरनी।१०३३ कुछ बातों की समानता ने मुझे "सतसई" लिखने को।
सिंगार बहुत आभूषण लिए, हाव-भाव विनम्र रस किए। बाध्य कर ही दिया है । वैसे भी जैन साहित्य में 'सतसई'
अति कटि छीन कमल नैन, कला गीत बोल शुभ बैन । रचनावों की बहुत ही कमी पाई जाती है अतः पाठक
भगवान का जब गर्भ में आगमन हुआ तो षट् मास रुष्ट न हों और इसे 'सतसई रूप में स्वोकार कर अनु
पूर्व ही इन्द्र ने पृथ्वी पर जो प्राकृतिक छटा बिखेर दी
उसका कैसा सुन्दर वर्णन कवि ने किया है:गृहीत करें। पं०शिरोमणिदास जी बुन्देल खण्ड क्षेत्र से अत्यधिक
रत्न बृष्टि बरसै सुख रूप, मानहुं तारागण जु स्वरूप ।
स्वर्ग लोक मानो लक्ष्मी आई, मात-पिता मनु लाई॥ प्रभावित दिखाई देते हैं । संभवतः सिहरोनि नगर बुन्देल
पुष्प बृष्टि बरसावहिं देव, जय जय शक्र करै बहु सेव । पण्ड के किसी नगर विशेष का ही नाम रहा हो । पंडित जी ने प्रस्तुत कृति में धाम, लाडी, धुरी, पकौरा, करौदा,
दुंदुभि देव बजावहिं तार, नहिं अप्सरा रूप रसाल 1 विस्मरा, कलींदा, अपूत, अचार (फल) फनकुली, आदी
मंद सुगंध वायु शुभ चल, रोग शोक दुख दारिद्र गले । (बद्रक) अनयर, अथई, दातीनि, गरदा आदि आदि-आदि
प्रजा अचम्भी दिन दिन करे, जिन उत्पत्ति जानि मन धर।
भगवान के माता-पिता के घर जाने से पूर्व इन्द्र बहुत से बुन्देली शब्दों का प्रयोग किया गया है जिससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे बुन्देल खण्ड क्षेत्र के ही
__अपने पूर्व पुन्य एवं भाग्य की सराहना करता हुना निवासी थे।
स्नानादि करता है उसका कितना स्वाभाविक वर्णन कषि
ने किया है :कवि ने प्रस्तुत कृति की तात्विक ज्ञान, आचारशास्त्र
एक घटी में अवधि प्रकास, पूरब पुण्य सकल हित भासे । एवं धार्मिक दृष्टि से एक संकलन अन्ध-सा तैयार किया
मैं तप पूरब कीन्ही घोर, व्रत क्रिया पाली अति घोर । है पर छन्दों की रचना बड़ी ही मार्मिक है। उपर्युक्त सात
मैं जिनेन्द्र पूजे अति शुद्ध, पात्रहि दान दियो हित बुद्धि। सन्धियों में उन्होंने जिन पूजा, चक्रवर्ती संपदा, नरक के
सो वह पुण्य फलो मोहि आज, सकल मनोरथ पूरे काज ॥ दब, तिथंच के दुख, सोलह स्वर्गों का वर्णन, बारहभावना, यह विचारि उठि ठाढ़े भए, देविन सहित स्नान हित गए । सोलह सप्न, समवशरण का सौन्दर्य वर्णन, जिनेन्द्र प्रभु
अमृत वापिका रत्ननि जड़ी, महा सुगंध कमल बहभरी। की माता का वर्णन आदि-आदि विषयों का बड़े विस्तार
दि-आदि विषयो का बड़ विस्तार तहां स्नान करें सुख हेत, बढ़ी प्रेम रस बहु सुध देत। से वर्णन किया है ? कही-कहीं शिष्ट श्रृंगार के भी दर्शन करी विनोद क्रीड़ा सुख पाइ, आनंद उमग्यो अंतु न बाइ। हो जाते हैं। इस तरह यह कृति हिन्दी जगत में जैन उज्ज्वल कोमल वस्त्र सुगंध, पहिरे देव महा सुखबंध । साहित्य के इतिहास की एक अनुपम कृति है।
कंकन कुंडल मुकुट अनूप, भूषण अनुप को कहे स्वरूप । बानगी के लिए कुछ छन्द प्रस्तुत कर रहा हूं जिससे गीत नृत्य वादित्र निघोष, देविन सहित चल्यो सुर घोष ।। कृति की श्रेष्ठता सिद्ध हो सके। कवि इन्द्र की इन्द्राणियों जिन वर मंदिर देखे जाइ, बहु आनन्द करे सुर रा॥ का वर्णन बड़े शृंगारिक ढंग से करता है । पर उसमें सम्यग्दर्शन कैसे उत्पन्न होता है तथा कैसे नष्ट होता शिष्टता और मर्यादा का उल्लंघन नहीं होने दिया गया है उसके विषय में सुन्दर छन्द देखिए :है जैसे देखिये:
उत्पत्ति:सची यष्ट सुन्दर सुभ मात, विकसित बदन कहे ते वात। के तो सहज उपजे आइ, * मुनिबर उपदेस बताए।