Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 132
________________ एक महत्वपूर्ण अप्रकाशित अपभ्रंश रचना :अमरसेन परिउ कड़वक में उल्लंघन नहीं किया गया है। सर्वत्र आठ से था। इन पंडितों के रहते हुए भी इस ग्रन्थ की रचना न्यून यमक किसी भी कड़वक में नहीं हैं। के लिए कवि माणिक्कराज से ही निवेदन किया जाना पत्ता छन्द के इसमें विभिन्न रूप मिलते हैं। प्रायः कवि के विशेष प्रतिभाशाली होने का प्रतीक है। १०, ८, १३, मात्राओं पर विराम देकर इस छन्द मे कवि सुरीली वाणी से नगरवासियो को सुखदायक रचना की गई है। ११ और १३ मात्राओं पर (१.६) सिद्धान्त के अर्थ-चिन्तक थे । वे सरस्वती के निवास, जिन तथा इसके विपरीत १३, ११ मात्राओं पर विराम देकर देव और जिन गुरु के भक्त', बहुश्रुत और गोष्ठियों के मार्ग भी (दे० १.१९) इस छन्द की रचना की गयी है। हिन्दी दर्शक थे । पंडित सरा आपके पिता थे, तथा आपका नाम भाषा मे सोलह मात्राओ से चौपाई तथा ११, १३ मात्राओ माणिक्कराज था। कवि ने स्वयं को पडित कहकर से सोरठा और १३, ११ मात्राओ से दोहा छन्द का निर्माण सम्बोधित किया है। कवि के पिता का नाम 'बुधसूरा' होता है। अपभ्रंश भाषा मे चौपाई के समान पद्धड़ियां था, श्री प० परमानन्द शास्त्री का यह कथन' तर्कसंगत छन्द है तथा दोहा और सोरठा के रूप में घत्ता छन्द । प्रतीत नही होता है। कवि को पंडित कहा जाना तथा रामचरितमानस मे व्यवहृत चौपाई, दोहा, सोरठा छन्दो से पिता के नाम में 'बुध' शब्द का होना इस तथ्य का प्रतीक ऐसा प्रतीत होता है, मानो कवि तुलसी ने अपभ्रश के है कि कवि के पिता भी पडित थे। अतएव कवि के पिता पड़ियां छन्द को चौपाई के रूप मे और पत्ता छन्द को का नाम सूरा था और पंडित उनकी उपाधि थी। यह भी दोहा तथा सोरठा छन्दो के रूप में अपनाया हो। प्रतिभाषित होता है कि कवि को पडिताई पैतृक परम्परा कवि ने जैसा विस्तृत परिचय इस ग्रन्थ के लिखाने से प्राप्त हुई थी। अखडित शील से युक्त कहे जाने से कवि वाले देवराज चधरी का दिया है, वैसा आत्म परिचय नही बालब्रह्मचारी रहे ज्ञात होते हैं। इस ग्रन्थ के निर्माण हेतु दिया है। उन्होने गुरु परम्परा का उल्लेख अवश्य किया आपसे ही आग्रह किये जाने मे यहा दो हेतु प्रतीत होते है। गुरु परम्परा मे उन्होने क्रमश. क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति, हैं-प्रथम तो वश परम्परागत पडित्य और दूसरे कवि का कुमारसेन, हेमचन्द्र और और पद्मनन्दि आचार्यों के नामो- प्रतिभासम्पन्न होने के साथ बालब्रह्मचारी होना । कवि की ल्लेख किये हैं। पचनन्दि कवि के गुरु थे। वे गुरु-पदावली अपरकृति अपभ्रंश भाषा में लिखित 'नागसेनचरित' से में प्रवीण, निर्ग्रन्थ, शील की खानि, दयालु, मिष्ठभाषी, भी उनके पिता का नाम बुधसूरा-पडित सूरा ही ज्ञात और तप से क्षीण (तपस्वी) थे। होता है। यह भी विदित होता है कि उनकी मां का नाम ग्रंथ के अन्त में कवि ने दादा गुरु आचार्य हेमचन्द्र दीवा था तथा वे जयसवाल कुल मे उत्पन्न हुए थे। का स्मरण करते हुए उन्हें मोह-मत्सर के त्यागी, शुभ मूलतः कवि कहां के निवासी थे यह नहीं कहा जा ध्यानियों में प्रधान आचार्य कहा है तथा अपने गुरु सकता है, परन्तु यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता हैं पपनन्दि को तप रूपी तेज से युक्त प्रकट करते हुए अपने 'अमरसेनचरित' की रचना करते समय रहियास (रोहतक) को उनका शिष्य बताया है। कवि के अतिरिक्त पद्मनन्दि में रहते थे। इसकी सचना के प्रेरणा स्रोत देवराज चौधरी के शिष्यों में एक देवनन्दि का नाम भी मिलता है। भी इसी नगर के निवासी थे। उनके निवास स्थान के देवदन्दि को ग्यारह प्रतिमाधारी, राग-द्वेष, मद-मोह के सम्बन्ध में उपलब्ध इन साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में ज्ञात होता विनाशक, शुभध्यानी और उपशमभावी कहा गया है।' है कि कवि मूलतः रोहियासपुर संभवत: वर्तमान रोहतक है कि कवि मलत:: इस उल्लेख के आलोक मे देवनन्दि कवि के गुरु-भाई के निवासी नहीं थे। इस सम्बन्ध में एक तथ्य यह भी ज्ञात होते हैं । वे क्षुल्लक या ऐलक हो गये थे। कवि का विचारणीय है कि कवि ने अपनी इस कृति मे" कवि रबधू जिस पार्श्वनाथ मन्दिर में निवास था वहां दो विद्वान् और कृत 'पासणाहचरिउ' कृति के कुछ अश का" नगर वर्णन भी रहते थे-शान्तिदास और जसमलु । दोनो मे जसमलु प्रसग में उपयोग किया है। अतः निर्विवाद रूप से यह तो गुणवान् और ज्येष्ठ था, शान्तिदास उसका छोटा भाई कहा जा सकता है कि कवि माणिक्कराज पासणाहचरित

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