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सम्पादकीय भेंट :
१. मूल संस्कृति : अपरिग्रह :
'परस्परव्यतिकरे सति येनाऽन्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् -' परस्पर में मिले हुए अनेकों में, जो हेतु किसी एक की स्वतंत्ररूपता को लक्षित कराता है वह उस जूदे पदार्थ का लक्षण होता है । जैसे अग्नि का लक्षण उष्णता ।
उष्णता अग्नि को पानी से जुदा बताने में हेतु है। ससारं में जैन, बौद्ध, वैष्णव, शैव, मुस्लिम, सिख आदि अनेको मत-मतान्तर प्रचलित हैं, उन सबकी पृथक्-पृथक् पहिचान कराने के उनके अपने-अपने लक्षण निश्चित हैं, जिनसे उनकी पृथक् पहिचान होती है। यह बात निर्विरोध है कि जैनों की पहिचान कराने मे 'अपरिग्रह' मुख्य हेतु है । यह हेतु जैनो का अन्यों से व्यवच्छेद कराता है। गत अको में हमने लिखा था 'जैन संस्कृति अपरिग्रह मूलक' है और यही अपरिग्रह रूप संस्कृति जैनों का अन्यों से व्यवच्छेद कराती है - जैनों की पहिचान कराती है । साधारणतया अपरिग्रह के सिवाय अन्य शेष धर्मो-अहिंसादि में वह शक्ति नही जो वे जैनो का अन्य मत-मतान्तरो से सर्वथा व्यवच्छेद कराने में समर्थ हो सकें । यतः अपरिग्रह के सिवाय अन्य अहिंसादि शेष धर्म अन्य सभी साधारण मतमतान्तरों में हीनाधिक रूपो में पाए जाते हैं। अतः जैनों में उनका अस्तित्व तात्त्विक पहिचान के रूप में विशेष महत्व नही रखता और ना ही उनमे से कोई धर्म औरो से जैनों की अलग पहिचान कराने में समर्थ ही है । तथा जैनों की हर क्रिया में पूर्ण अपरिग्रहत्व की भावना निहित है। यहां तक कि जैन का अस्तित्व भी अपरिग्रह पर आधारित है । यतः -
'जैन' शब्द के निष्पन्न होने में 'जिन' की मुख्यता है । जो 'जिन' का है वह 'जैन' है ओर जो जीत ले वह 'जिन' है। यहां जीतने से तालयें मोह, राग-द्वेषादि पर वैभाविक भाव अर्थात् कर्मों के जीतने से है। क्योकि ये मोहादि पर-भाव स्वयं भी परिग्रह हैं और परिग्रह के मून भी हैं।
हमने श्रावक व मुनियों के दैनिक कृत्यों को पढ़ा है और उनके प्रारम्भिक कृत्यों को देखा है । नित्य नियम सामायिक आदि के लक्षणों में भी अपरिग्रह भावना की कारणता विद्यमान है अर्थात् जब तक रागादिपरिग्रह के प्रति उदासीन भाव नही होगा तब तक सामायिक न हो सकेगी। जहां पर - परिग्रह से निवृत्ति और स्व यानी अपरिग्रहत्वरूप निर्विकार स्व-परिणाम में ठहराव है वही सामायिक है और वह ही आत्म-शुद्धि मे कारण है। जब तक जीव की पर-प्रवृत्ति बनी रहेगी, चाहे वह प्रवृत्ति अहिंसादि में ही क्यों न हो ? वह बन्ध का ही कारण होगी क्योकि अहिंसादि धर्म भी पर अपेक्ष कृत हैं, पर के आसरे से है। स्व-परिणाम 'अपरिग्रह' रूप होने से बन्ध का कारण नही । अहिंसादिक सामाजिक धर्म हैं और अपरिग्रह आत्मिक धर्म है जिसका 'जिन' और जैन से तादात्म्य संबन्ध है ।
युग के आदि प्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर भ० महावीर तक चौबीस तीर्थंकर और अरहन्त अवस्था व मुक्ति को प्राप्त असख्य सिद्ध अपरिग्रही होने से ही पूर्णता को पा सके । एक भी दृष्टान्त ऐसा नही है जिससे परिग्रही का मुक्त होना सिद्ध हो सके ।
जैनों में जो दिगम्बर, श्वेताम्बर जैसे दो भेद पड़े हैं वे परिग्रह और अपरिग्रह के कारण ही पड़े हैं। ऐसा मालुम होता है कि जिन्होंने अपरिग्रह पर समन्ततः और सूक्ष्म दृष्टि रखी वे दिगम्वर और जिन्होने अपरिग्रह पर स्थूल, एकांगी बाह्य-दृष्टि रखी वे श्वेताम्बर हो गए । स्मरण रहे जहां दिगम्बर अन्तरंग-बहिरंग सभी प्रकार के परिग्रह त्याग पर सूक्ष्म रूप में जोर देते हैं, वहां मवेताम्बर बाह्य परिग्रह को गौण कर केवल अन्तरंग परिग्रह को मुख्यता देते हैं और इसीलिए उनमें स्त्री और सवस्त्र मुक्ति को मान्यता दी गई है। यदि इन भेदों के होने में अहिंसादि को लेकर मतभेद की बात होती तो उसका