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१२ वर्ष ३७, कि०४
क्या कहें ? शोध पौर संभाल की बातें? एक दिन वाद करें। हम तो उत्तम लेख देना चाहते है। हमें खुशी एक सज्जन आ गए। बातें चलती रही कि बीच में- है कि हमारी कमेटी उपयोगी व शोधपूर्ण लेखों के लिए बिखरे वैभव की रक्षा और शोध का प्रसंग छिड़ गया। वे कुछ पुरस्कार देने पर भी विचार कर रही है। शायद बोले-पंडित जी, क्या बताएं? मैं अमुक स्थान पर गया। इससे आत्मोपयोगी और चारित्र की दिशा में ले जाने वाले कितना मनोरम पहाड़ी प्रदेश है वह, कि क्या कहूं? मैंने लेख मिल सके देखा वहां हमारी प्राचीन सुन्दर खंडित-अखडित मूर्तियों
एक हितैषी ने लिखा है-आप ने अनेकान्त को पुनका वैभव विखरा पड़ा है, कोई उसकी शोध-संभाल करने ___ रुज्जीवित किया है, इसे स्व० मुख्तार साहब के स्तर तक वाला नही-बड़ा दुख होता है इस समाज की ऐसी दशा पहुंचाना है-इसे आध्यात्मिकता दें। कुछ लोग चाहते हैंको देखकर । वे चेहरे की प्राकृति से, अपने को बड़ा दुखी
इसे सरल और बालोपयोगी बनाया जाय-जैसे कुछ चित्र जैसा प्रकट कर रहे थे, जैसे सारी समाज का दुख-दर्द
कथाए आदि आदि। हमें सभी को आदर देना है।
कथाए आदि आदि। हमे स उन्हीं ने समेट लिया हो।
लोक भिन्न-भिन्न रुचि वाला है जो जैसा चाहता है, बस, इतने में क्या हुआ कि सहसा उन्होंने पाकिट से ठीक है-अपनी-अपनी दृष्टि है। पर, हमें यह मानकर सिगरेट निकाली, माचिस जलाने को तैयार हुए कि मुझसे चलना चाहिए कि सभी महावीर नही हो सकते और न न रहा गया-मन ने सोचा, वाह रे इनका प्राचीन वैभव। सभी मुख्तार सा० । महावीर भगवान थे और मुख्तार वचनों ने तुरन्त कहा-'कृपा करके बाहर जाकर पीजिए।' सा० स्वाश्रित, स्वाधीन । उनके युग में जो जैसा हुआ, वे सहमे । जैसे शायद उस क्षण उन्हें अपनी शोध-संभाल उचित हुआ। हमें भी युगानुरूप उचित करना चाहिए। का ध्यान आया हो--क्षण भर के लिए ही सही। वे हमारी दृष्टि तो आज चारित्र पर बल देने और सैद्धान्तिक विरमत हुए और बात समाप्त हो गई। मैंने सोचा-काश, विषयों के प्रतिपादन की है। ये जो हमारी अर्थ के प्रति ये अन्य शोध-संभालो के बजाय आत्म-शोध करते होते। दौड़ है उसे सीमित होना चाहिए। ऐसा न हो कि धर्मआप इस प्रसंग में कैमा क्या सोचते हैं, जरा सोचिए। मार्ग सर्वथा ही अर्थ-मार्ग बन जाय और धर्म शिथिल हो
जब देश में हिंसा का वातावरण बन रहा है, लोग जाय-जैसा कि आज हो रहा है। कई लोग तो स्वय को मछली-पालन और पोल्ट्रीज फार्म कायम करने जैसे धन्धों अर्थ लाभ न होने पर सस्थाओ की बुराई करने तक पर द्वारा जीवो के वध में लगे हैं तब कुछ लोग उस वध के उतर आते देखे गये हैं । खेद ! निषेध में भी लगे हैं । कुछ ऐसे भी हैं जो पशु-पक्षियों पर हम निवेदन कर दें कि यह अनेकान्त के ३७वें वर्ष रिसर्च कर ग्रन्थों के निर्माण में लगे हैं। गोया, अनजाने की अंतिम किरण है। इस बीते वर्ष मे हम स्खलित भी में वे मांस-भक्षियों को विविध जीवो की जानकारी दे रहे हुए होगे जिसका दोष हमारे माथे है। हम यह भी जान हों, क्योंकि परमाणु खोज की भांति उसमें भी जीवरक्षा रहे हैं कि जो मोती चुनकर हम देते रहे हैं उनके पारखी की गारण्टी नही है-मांस भक्षी ऐसी जानकारी का दुरुप- थोड़े ही होंगे। एक-एक मोती चुनने में कितनी शक्ति योग भी कर सकते हैं। हमने बहुत से आफसैट पोस्टरो लगानी होती है इसे भी कम लोग ही जानते होंगे। धर्म को देखा है, जो प्लेट पर अण्डे की जर्दी लगाकर छापे और तत्त्वज्ञानशून्य वर्ग तो हमारे कार्य को निष्फल मानने जाते हैं। अहिंसा के पुजारी बनने वाले कतिपय प्रचारक का दुःसाहस भी करता होगा। पर, इसकी हमें चिंता इसी विधि के पोस्टर बनाने-बनवाने में सन्नद्ध हैं, आदि। नही। यतः सभी हंस नही होते । हाँ, एक बात और,
एक सज्जन हैं जो हमें बारम्बार लिख रहे हैं कि अब तक हमारे संपादक मंडल, महासचिव, संस्था की अमुक विषय पुराना है, ये सन् ४१ मे छपने के बाद दुबारा कमेटी आदि ने हमे पूरा २ सहयोग दिया है। लेखकों के छप गया है-इसका आप प्रतिवाद करे आदि । हम नहीं सहयोग से तो पत्रिका को जीवन ही मिलता रहा है। समझ पा रहे कि किसका समर्थन करें और किसका प्रति- हम सभी के आभारी हैं।