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सम्पादकीय भेंट
का संकल्प किया है और वह भारत में श्रावक तैयार है ? हमें अपने जीवन में आचार पर बल देना ही हमारी करने का बीड़ा उठा रहा है। पर, यह भी सोच लेना सची खोज होगी। चाहिए कि हमारे प्रचारक नेताओं में ऐसे सच्चे धावक यह हम पहिले भी लिख चुके हैं और आज भी लिख कितने होंगे जिनकी जनता पर श्रावकाचाररूप में छाप रहे हैं कि यदि वास्तव में शोध-खोज का मार्ग प्रशस्त पड़ेगी? कोरे साहित्य वितरण से प्रचार हो सकेगा-यह करना है तो हम शुद्ध पंडित परम्परा को जीवित रखने बात भी तब तक अधूरी जैसी है-जब तक प्रचारकों में का प्रयत्न करें--जिससे हमें भविष्य में आत्म-शोध का कुछ स्वयं आचार के मूर्तरूप न बनें। इन्दौर वाले मूर्त- मार्ग मिलता रहे । आचार्यों द्वारा कृत प्राचीन शोधों से प्राचार देने में सफल हों, ऐसी हम कामना करते हैं उनके हमें वे ही परिचित कराने में समर्थ हैं। इसमें अत्युक्ति इस सत्प्रयास मे हम उनके साथ हैं। काश, कुछ हो सके? नही कि भविष्य में पूर्वाचार्यों द्वारा शोधित ऐसे जटिल
प्रसंग हमें सरल भाषा मे कौन उपस्थित करा सकेगा, जैसे ३. शोध-खोज और हमारा लक्ष्य :
प्रसंग प्रायु के उतार पर बैठे हमारे विद्वानों ने जुटाए हैं। शोध की दिशा बदलनी होगी। आज जो जैसी शोध
षट्खंडागम-धवलादि, समयसार, षट्शाभूत संग्रह, बंधहो रही है और जैसी परिपाटी चल रही है, उससे धर्म
महाबंध तथा अन्य अनेक आगमिक ग्रंथों के प्रामाणिक दूर-दूर जाता दिखाई दे रहा है। यह ठीक है कि जैनधर्म
हिन्दी रूपांतर प्रस्तुत करने वाले इन विद्वानों को धन्य है शोष का धर्म है पर उसमे शोध से तात्पर्य आत्म-शोध
और इनकी खोज ही सार्थक है। हमारा कर्तव्य है कि (शोधन) से है, न कि जड़ की गहरी शोध से। जड़ की
उन ग्रन्थों का लाभ लें-उन्हें आत्म-परिणामों में उतारें गहरी शोध तो आज बहुत काल से हो रही है और इतनी
और आगामी पीढ़ी को उनसे परिचित करायें। बस, आज हो चुकी है कि दुनियां विनाश के कगार तक जा पहुंची
इतनी ही शोध आवश्यक है और यही जैन और जैनत्व है-परमाणु-खतरा सामने है। प्रकारान्तर से हम जैनी ।
के लिए उपयोगी है-अन्य शोधे निरर्थक है । वरना, देख भी आज जो खोजें कर रहे हैं, वे पाषाण और प्राचीन तो रहे हैं जैनियों के ढेर को आप । शायद ही उसमें से लेखन आदि की खोजें भी सीमाओं को पार कर गई हैं। किसी एक जैनी को पहिचान सकें आप। उनसे हमारे भण्डार तो भरे, पर हम खाली के खाली, एक सज्जन बोले-हमें याद है, जब हमने एम. ए. जहां के तहां और उससे भी गिरे बीते रह गए और आत्म- लिया तो हमारे मापते भी कई हितैषियों द्वारा लक्ष्य न होने से किसी गर्त मे जा पहुंचे। यदि यही दशा प्रबंध लिखकर डिग्री प्राप्त कर लेने की बात आई थी रही तो एक दिन ऐसा आयगा कि कोई उस गर्त को
और चाहते तो हम डिग्री ले भी सकते थे। पर, हमने मिट्टी से पूर देगा और हम मर मिटेंगे-जैनी नाम शेष
सोचा-शोध तो आत्मा की होनी चाहिए। प्रयोजनभूत न रहेगा-मात्र खोज की जड़ सामग्री रह जायगी। या तत्त्वों और आगमिक कथनों को तो आचार्यों ने पहिले ही फिर क्या पता कि वह भी रहे न रहे। पिछले कई शोध कर रखा है। क्यो न हम उन्हीं से लाभ लें? यदि भण्डार तो दीमक और मिट्टी के भोज्य बन ही चुके हैं। हमने प्रचलित रीति से किसी नई शोध का प्रारम्भ किया
प्राचीन पूर्वाचार्य बड़े साधक थे उन्होंने स्वय को शुद्ध तो निःसन्देह हमारा जीवन उसी मे निकल जायगा और किया और खोजकर हमें आत्म-शुद्धि के साधन दिए। अपनी शोध-आत्म-शोध कुछ भी न कर सकेंगे। बस, बाज भण्डारों से पूर्वाचार्यों कृत इतने ग्रंथ प्रकाश में मा हमने उसमें हाथ न डाला। अब यह बात दूसरी है कि चके है कि अपना नया कुछ लिखने-खोजने की जरूरत ही परिस्थितियों वश हम अपनी उतनी खोज न कर सके, नहीं रही। हम प्रकाश में आए हुए मूल ग्रंथों का तो जितनी चाहिए थी। फिर भी हमें सतोष है कि हम जो जीवन मे उपयोग न करें और मनमानी नई पर-खोजो में हैं, जैसे हैं, ठीक हैं। पूर्वाचार्यों की शोध में संतुष्ट, आस्थाजुटे रहें, वह भी दूसरों के लिए। यह कहां की बुद्धिमानी वान और विवादास्पद एकांगी शोधों से दूर ।