Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 140
________________ सम्पादकीय भेंट कही तो कैसे भी उल्लेख होता-जैसा कि नहीं है। दोनों है कि अशुभ से हटकर शुभ में आना आदि, सो सब व्यवमें ही अहिंसादि चार धर्मों के लक्षणो और उनके रूपों की हार है। मान्यता में एकरूपता है। यदि भेद है तो परिग्रह और (१) प्रतिक्रमण :-परिग्रह से आवृत प्राणी पुनः पुनः अपरिग्रह के लक्षणों को लेकर ही है। परिग्रह-राग-द्वेषादि रूप पर-भावों मे दौड़ता है अर्थात् दोनों संप्रदायों मे दो श्लोक बडे प्रसिद्ध है। उनमें वह स्व से बेखबर हो जाता हैं और पुण्य-पापरूप या दिगम्बर-सम्प्रदाय मे शास्त्र वाचन के प्रारम्भ मे पढा ससारवड़क पर पदार्थों में वृत्ति को ले जाता है। ऐसे जाने वाला मंगलश्लोक पूर्ण-अपरिग्रही होने के रूप में। जीव को उन परिग्रह-कर्मबधकारक क्रियाओं से सर्वथा नग्न दिगम्बराचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य को नमस्कार करता हटकर पुन: अपने शुद्ध अपरिग्रही आत्मा में आने के लिए है जब कि श्वेताम्बरों में इस श्लोक का रूप सवस्त्र प्रतिक्रमण का विधान किया गया है। इसमे पर-प्रवृत्ति का (दिगम्बरों की दृष्टि मे परिग्रही) आचार्य स्थूलभद्र को सर्वथा निषेध और स्व-प्रवृत्ति (जो शुद्ध यानी अपरिग्रह नमस्कार रूप में है। तथाहि रूप है) में आने का विधान है। दिगम्बरों मे: (२) प्रत्याख्यान-जो जीव पर से स्व में आ गया, मगलं भगवान वीरो मगलं गौतमोगणी। वह पुनः पर मे न जाने को कटिबद्ध हो, यानी पुनः परि प्रहरूप-कर्मबधकारक क्रियाओं मे न जाने में सावधान मगल कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मगलम् ।। हो? इससे उमका आगामी ससार- परिग्रह यानी कर्मश्वेताम्बर : बधरूप संसार रुकेगा। मंगलं भगवान गेरो मगलं गौतमोप्रभु । मंगल स्थूलभवार्यों जैन धर्मोऽस्तु मगलम् । (३) सामायिक-प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान मे सन्नद्धजीव सम-समता भाव में स्थिर होने में समर्थ हो उक्त श्लोको से यह भी ध्वनित होता है कि सकेगा। क्योकि समता का शुद्ध-आत्मा से अटूट सम्बन्ध महावीर और गौतमगणघर के पर्याप्त समय बाद तक है। समता का भाव है-किसी अन्य के प्रति शुभ या अभेद रहा और बाद में अपरिग्रह, परिग्रह के आधार अशुभरूप-पर भावो का सर्वथा त्याग । क्योंकि शुभ और पर नग्न और सवस्त्र साधु के भिन्न-भिन्न नामों से अशुम भाव- चाहे वे विभिन्न जीवों में एक जैसे ही क्यों श्लोक प्रचलित किया गया, जो कुन्दकुन्द और स्थूलभद्र न हो बन्ध कारक होगे, जब कि सच्ची सामायिक में के रूप में हमारे सामने है। श्लोको में महावीर और आस्रव व बध दोनों का सर्वथा अभाव यानी आत्मा के गौतम के नाम यथावत एक रूप है। इसी के आधार पर अपरिग्रही होने का पूर्ण उद्देश्य है। इसी सामायिक से दिगम्बर कभी सवस्त्र को निर्ग्रन्थ-गुरु के रूप में नमस्कार ध्यान और कर्मक्षय को बल मिलता है। इस प्रकार जैन नहीं करते। और वैसा मगलाचरण भी नही करते की सभी प्रवृत्तियां अपरिग्रहत्व की ओर मुड़ी हुई हैं जब अब जैसा कोई-कोई करने लगे हैं जो ठीक नही है। कि अहिंसादि अन्य धर्मों मे पर का अवलम्ब अपेक्षित है। अपरिग्रह धर्म अध्यात्मरूप भी है जो आत्मा के पर- ध्यान के विषय में भी कुछ लिखना है जिसे हम फिर भितशतस्वरूप कोताही अपरिपती कभी लिखेंगे। ध्यान की प्रक्रिया आज जोरों से प्रचारित रूप की प्राप्ति के लिए जिनशासन मे प्रतिक्रमण, प्रत्या- है और उसमें पर-प्रवृत्ति ही विशेष लक्ष्य बनी हुई है। ख्यान और सामायिक के विधान हैं। प्रतिक्रमण का अर्थ होता है-आत्मा के प्रति आना। प्रत्याख्यान का अर्थ २. प्रागम-विपरीत प्रवृत्तियां: होता है-पूनः 'पर' में न जाना और सामायिक का अर्थ क्षायिक सम्यग्दृष्टी जीव मिथ्यात्वरूप भाव और होता है-अपने में स्थिर होना। यह जो कहा जा रहा मिथ्या आचरण से सर्वथा दूर रहता है। ज्ञातहमा है कि

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