Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 137
________________ णमोकार मंत्र का फल -पुण्यात्रव कथाकोश से भरतक्षेत्र के यक्षपुर नाम के नगर में श्रीकान्त नाम एव मुनि-निन्दा के पाप से छूटने के लिए उसने श्राविका का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम मनोहरी के व्रत धारण कर लिए। इसके पीछे वेदवती के योवनथा। इसी नगर में सागरदत्त वणिक और रत्नप्रभा नाम वती होने पर राजा शम्बु ने उसके साथ विवाह करने की की उसकी स्त्री थी। रत्नप्रभा की गुणवती नाम की एक इच्छा की, और उसके पिता से याचना की। परन्तु राजा कन्या थी। सागरदत्त उसका विवाह उसी नगर के रहने मिध्यादृष्टि था, अतएव श्रीभूति ने अपनी श्राविका कन्या वाले नयदत्त के पुत्र धनदत्त के साथ करना चाहता था। उसे देना अस्वीकार किया। परन्तु राजा ने आज्ञा दी कि तुम्हें उसका विवाह मेरे तब राजा ने कुपित होकर मन्त्री को मार डाला। साथ करना पड़ेगा । अतएव विवाह नही हो सका। वह मरकर स्वर्गलोक गया। और वेदवती कन्या "मेरे नयदत्त की स्त्री का नाम नन्दना था। उसके गर्भ से निरपराध पिता को राजा ने मारा है, अतएव जन्मान्तर दो पुत्र उत्पन हुए। जिसमें से एक उक्त धनदत्त था और में मैं उसके विनाश करने का निमित्त होऊंगी।" ऐसा दूसरे का नाम वसुदत्त था । वसुदत्त को राजा ने जंगल मे निदान करके तपस्यापूर्वक शरीर त्याग किया और स्वर्ग क्रीडा करते समय मार डाला। तब वसुदत्त के सेवकों ने में देवाङ्गना हुई। इसके बाद देवायु पूर्ण करके भरतक्षेत्र गुस्से में आकर राजा को भी मार डाला। ये दोनों मर के दारुण ग्राम में सोमशा ब्राह्मण की ज्वाला नाम की कर हरिण हुए। उधर धनदत्त विदेश को चला गया। स्त्री के सरसा नाम की कन्या हुई। यह यौबनवती होने अतएव वह गुणवती पुत्री आर्तध्यान से मरकर जहां वे पर अतिविभूति नाम के एक ब्राह्मण पुत्र को व्याही गई, हरिण उत्पन्न हुए थे, वहीं हरिणी हुई। आखिर उसी पर परन्तु पति के साथ थोड़े ही दिन रह कर किसी जार में मोहित होकर वे दोनों हरिण आपस में लडकर मर गये, आसक्त होकर उसे लेकर देशान्तर में निकल गई । मार्ग में और जंगली सुअर हुए। हरिणी मरकर सूकरी हुई । सो एक मुनि के दर्शन हुए, सो पापिनी ने उनकी निन्दा की। वहां भी वे दोनों सूकरी के पीछे लड कर मरे और हाथी इस महापाप के फल से मरकर उसने तिथंच गति पाई। हुए। सूकरी मर कर हथिनी हुई। और इस पर्याय में भी बहुत काल भ्रमण करके वह एक बार चन्द्रपुर नगर के पूर्व प्रकार से मर कर भैसा, बन्दर, कुरबक, मेंडा आदि राजा चन्द्रध्वज और रानी मनस्विनी के चित्रोत्सवा नाम अनेक पर्यायों में उन दोनो ने भ्रमण किया। और वह की पुत्री हुई। जवान होने पर मन्त्री के पुत्र कपिल पर गुणवती भी क्रम से उसी जाति की स्त्री होती गई, तथा आसक्त होकर उसके साथ परदेश को चली गई। परन्तु उसी के निमित्त से वे दोनों लड़ कर मरते रहे। आखिर मत्रीपुत्र से भी नही बनी। उसे छोड़कर विदग्धपुर ___एक बार गुणवती गंगा नदी के किनारे हथिनी हुई। के राजा कुण्डलमडित की प्यारी स्त्री बनी। वहां पूर्व सो एक दिन कीचड़ में फंसकर कठगतप्राणा हो रही थी जन्म के सस्कार के कारण पाकर श्रावक के व्रत ग्रहण कि इतने मे एक सुरग नाम का विद्याधर आया और उसने किये, और बहुत काल उनका शुद्धचित्त से पालन किया। उसे पंच नमस्कार मन्त्र दिया। उसके फल से हथिनी माग करके इस बढे भारी पण्य फल से वह दसरे जन्म शरीर छोडने पर मृणालपुर के राजा शम्बु के मन्त्री श्रीभूति मे सीता सती हुई। की सरस्वती स्त्री के वेदवती नाम की कन्या हुई। एक सीता के स्वयंवरादि का चरित्र पचरित अर्थात् दिन मृणालपुर में चर्या के लिए एक मुनिराज पधारे थे, पद्मपुराण से (रामायण से) जानना चाहिए। यहां पर केवल सो वेदवती ने देखकर मूर्खतावश उनकी निन्दा की। इतना ही कहना है कि एक हथिनी ने भी नमस्कार मंत्र इसके बाद उसके गले मे जब कोई रोग हुआ, तब लोगों के प्रभाव से श्रीमती सीता सती सरीखी उत्तम पर्याय पाई। ने कहा कि तूने मुनिराज की निन्दा की थी, यह उसी का यदि अन्य सम्यग्दृष्टि मनुष्य महामंत्र का जप करें, तो क्या फन है । वेदवती को इस बात पर विश्वास हो गया, अत- क्या वैभव न पावें? इसके प्रभाव से सब कुछ पा सकते हैं।

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