Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 129
________________ १५ वर्ष ३७, कि०४ अनेकान्त सार एक समय में किसी एक को मुख्यतया लेकर कथन अत: इस विरोध को दूर करने के लिए समस्त वाक्यों में किया जाता है उसको दार्शनिक शब्दावली में "कथंचित् "स्यात्" पद का प्रयोग करना चाहिए । इसी तरह वाक्य अपेक्षा" से कहा जाता है जिसका दूसरा नाम अपेक्षावाद में एवकार 'ही' का प्रयोग न करने पर भी सर्वथा एकान्त भी है। अपेक्षावाद का यह सिद्धांत दार्शनिक मतवादों के को मानना पड़ेगा, क्योंकि उस स्थिति में अनेकान्त का आग्रह को शियिल करता है और जीवन का यथार्थ दृष्टि- निराकरण अवश्यम्भावी है जैसे उपयोग लक्षण जीव का ही कोण भिन्न-भिन्न रूपो में हमारे सामने प्रस्तत रहता है। है इस वाक्य में एवकार (ही) होने से यह सिद्ध होता है स्वामी समन्तभद्राचार्य ने अपने आप्तमीमांसा कि उपयोग लक्षण अन्य किसी का न होकर जीव का ही नामक प्रकरण में स्थाद्वाद शब्द का प्रयोग किया है। है अतः इसमें से ही को निकाल दिया जाए तो उपयोग सिरसेन विरचित न्यायावतार में तो स्पष्ट रूप से स्यावाद अजीव का भी लक्षण हो सकता है और ऐसा होने से वाम श्रत का निर्देश करते हुए उसको सम्पूर्ण अर्थ का अर्थ की व्यवस्था का लोप हो जाएगा। निश्चय करने वाला कहा है। भट्टाकलकदेव ने श्रुत के दो जैन दर्शन का स्याद्वाद सभी वार्शनिक सिद्धांतों को उपयोग बतलाए हैं उनमें से एक का नाम स्याद्वाद है और अपने में समेटे हुए है, इसी कारण यह स्थाबाद का सिद्धांत दूसरे का नाम है नय । सम्पूर्ण वस्तु के कथन को स्याद्वाद सभी दार्शनिकों को मान्य भी है। लेकिन जैन दर्शन का कहते हैं और वस्तु के एकदेश के कथन को नय स्याद्वाद जो समन्वयबाद बा, जो समन्वयात्मक दृष्टिकोण कहते हैं। स्वामी समन्त भद्र' ने स्याद्वाद का लक्षण रखता है वह शंकर के अत वेदान्त के समन्वयात्मक लिखते हुए कहा है सर्वथा एकान्त को त्याग कर अर्थात् दृष्टिकोण से भिन्न है। जैन दर्शन का स्याद्वाद भौतिक अनेकान्त को स्वीकार करके सात भगो और नयो की समन्वयात्मक है, जबकि शंकर का अवैतवाद आध्यात्मिक अपेक्षा से, स्वभाव की अपेक्षा सत् और परभाव की अपेक्षा समन्वयात्मक है। जन वर्शन स्यावाद की बात तो करता असत् इत्यादि रूप मे कथन करता है उसे स्याद्वाद कहते है, लेकिन पूर्व ज्ञान को कौन निर्धारित करेगा इसके उत्तर '-नि" शब्द मे चित्, पट इत्यादि प्रत्ययो को जोडने से जो में वह सबको समान दर्जे पर रखता है जबकि शंकराचार्य रूप बनते हैं जैसे किंचित्, कथचित्, कथ पद ये सब स्याद्- उस समन्वय से उठकर ब्रह्म को स्थापित करते हैं, तो यह वाद के पर्याय शब्द हैं। "स्याद्वाद के बिना हेय और धर्मनिष्ठा है। यही पर दर्शन के विचार की उदारता में उपादेय की व्यवस्था नही बनती।" अकलकदेव ने "अने- विश्व में सबसे अधिक प्रसिद्ध है। सच्चे एवं गहन दार्शकान्तात्मक अर्थ के कथन को स्यावाद कहा है।" निक की परीक्षा अनुयायियों की संख्या के बल पर तथा ___ अनेकान्त के द्योतन के लिए सभी वाक्यो के साथ उदारता पर निर्भर है। इस संसार में कोई भी बात 'स्यात' शब्द का प्रयोग आवश्यक है उसके बिना अनेकान्त झूठी नहीं है। सबको समझने की सच्ची दृष्टि होनी का प्रकाश सम्भव नहो है। शायद कहा जाए कि लौकिक चाहिए, वह झूठी न हो। अगर दृष्टि ही झूठी हो तो सृष्टि जन तो सब वाक्यों के साथ स्यात् पद का प्रयोग करते कोई चीज सच्ची नही है। देखे नही जाते इसका उत्तर देते हुए अकलकदेव ने कहा कुछ पाश्चात्य ताकिकों के विचारों के साथ स्याद्वाद है कि यदि शब्दो का प्रयोग करने वाला पुरुष कुशल हो की बड़ी समानता है। ये पाश्चात्य ताकिक भी कहते हैं तो स्यात्कार और एवकार का प्रयोग न किए जाने पर कि प्रत्येक विचार का अपना-अपना प्रसंग या प्रकरण होता भी विधिपरक, निषेधपरक तथा अन्य प्रकार के वाक्यों में है उसे हम विचार प्रसग कह सकते हैं । विचारों की स्यावाद और एवम् की प्रतीति स्वय हो जाती है। सार्थकता उनके विचार प्रसंगों पर ही निर्भर होनी है। जो वादी वाक्य के साथ "स्यात्" पद का प्रयोग करना विचार प्रसंग में स्थान, काल, दशा, गुण आदि अनेक मतें पसन्द नही करते उन्हें सर्वथा एकान्तवाद को मानना सम्मिलित रहती हैं। विचार परामर्श के लिए इन बातों पड़ेगा और उसके मानने में प्रमाण से विरोध आता है। को स्पष्ट करने की उतनी आवश्यकता नहीं रहती है।

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