Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 128
________________ वाचनिक अहिंसा : स्याद्वाद 0 अशोककुमार जैन एम. ए. सम्पूर्ण विश्व, जीव आत्मा, परमात्मा, अदृष्ट, पुण्य- मात्र अनेकान्त ही ग्रहण किया जा सकता है । निपात पाप, स्वर्ग-नरक, बंध-मोक्ष आदि सभी दार्शनिक चिन्तन शब्द के दो अर्थ होते हैं एक द्योतक और दूसरा वाचक । के विषय हैं । विभिन्न मनीषियों ने अपने २ दृष्टिकोणों जैन क्षेत्र मे स्यात् निपात के दोनो अर्थ गृहीत हैं क्योंकि से इनकी व्याख्या की है। दृष्टिकोणो की यह विभिन्नता स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक भी होता है और वाच्य ही वस्तु के वास्तविक स्वरूप को सूचित करती है । इस भो। स्वामी समन्त भद्र कहते है कि स्यात् शब्द का अर्थ चिन्तन के फलस्वरूप आरम्भ मे वस्तु तत्व के सम्बन्ध में के साथ सम्बन्ध होने के कारण वाक्यो में अनेकान्त का प्रायः सभी मनीषियों के मन्तव्य अनन्त गुणधर्मात्मक द्योतक होता है और गम्य अर्थ का विश्लेषण होता है। दिखाई पड़ते हैं । वस्तु अनन्त धर्म वाली होने से उसके स्यात् शब्द निपात है और वह केवलियों को अभिमत है। स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण होना भी स्वाभा- प्रो० बल्देव उपाध्याय' "स्यात्" शब्द का अनुवाद विक है । जब ये विभिन्न दृष्टिकोण वाले व्यक्ति अपने शायद या सम्भवत. करते है परन्तु न तो यह शायद, न अभिप्राय के अतिरिक्त अन्य दृष्टिकोणो की उपेक्षा कर सम्भावना और न कदाचित् का प्रतिपादक है किन्तु सुनिभाग्रह से अपनी दृष्टि या मत को ही ठीक समझने लगते निश्चित दृष्टिकोण का है। शब्द का स्वभाव है कि वह हैं और दूसरे दृष्टिकोणों का खण्डन भी करते हैं तब अवधारणात्मक होता है इसलिए अन्य के प्रतिषेध करने विभिन्न मतवाद खड़े हो जाते है। खण्डन-मण्डन की में वह निरकुश रहता है । इस अन्य के प्रतिषेध पर अंकुश परम्परा का सम्भवतः यह दूसरा युग था, जो लगभग लगाने का कार्य (स्यात्) करता है । वह कहता है कि ईसा की प्रथम शताब्दी में उभर कर सामने आया । इस रूपवान घट) वाक्य घड़े के रूप का प्रतिपादन भले ही अवधि में ही जैन परम्परा मे अनेकान्तवाद और स्याद्वाद करे पर वह "रूपवान ही है" यह अवधारण करके घड़े में रूप दार्शनिक स्वरूप का विकास हुआ । रहने वाले रस, गन्ध आदि का प्रतिषेध नही कर सकता। स्याद्वाद भाषा की वह निर्दोष प्रणाली है जो वस्तु वह अपने स्वार्थ को मुख्यरूप से कहे यहां तक कोई हानि तत्व का सम्यक प्रतिपादन करती है। प्रमाण' संग्रह के नही । पर यदि वह उससे आगे बढ़कर "अपने ही स्वार्थ मंगलाचरण में अकलक देव ने लिखा है "परम गरम को सब कुछ मानकर शेष का निषेध करता है तो उसका गम्भीर स्याद्वाद यह जिसका अमोघ लक्षण है ऐमा जिन ऐसा करना अन्याय है और वस्तु स्थिति का विपर्यास भगवान का अनेकान्त शासन सदेव जयवन्त हो"। करना है । (स्यात्) शब्द इसी अन्याय को रोकता है स्यात्माम में लगा हुआ शब्द प्रत्येक वाक्य के साक्षेप होने और न्याय वचन पद्धति की सूचना देता है वह प्रत्येक की सूचना देता है। स्यात् शब्द लिङ् लकार का क्रिया वाक्य के साथ अन्तर्गर्भ रहता है और गुप्त रहकर भी रूप पद भी होता है और उसका अर्थ होता है-होना प्रत्येक वाक्य को मुख्य गौण भाव से अनेकान्त अर्थ का चाहिए लेकिन यहां इस रूप मे यह प्रयुक्त नहीं है । स्यात् प्रतिपादक बनाता है। इसमें विभिन्न दृष्टिकोण से व्यर्थ विधि लिङ में बना हुआ तिष्ठन्त प्रतिरूपक निपात है। की सत्यता का व्याख्यान किया जाता है। वस्तुतः जड़ विधि लिङ में इससे संशय, प्रशंसा, अस्तित्व, प्रश्न, और चेतन सभी मे अनेक धर्म विद्यमान है। उन सबका विचार, अनेकान्त आदि कई अर्थ होते हैं जिसमें से यहां एक साथ कथन नहीं किया जा सकता। विवक्षा के अनु

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