Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 124
________________ क्या राजाणिक ने आत्महत्या की थी? यह प्रसंग चेलना ने कुणिक को सुनाया तो वह और तीर्थकर प्रकृतिबद्ध महापुरुष थे। उनकी मृत्यु को कुल्हाड़ी लेकर श्रेणिक के बन्धन काटने को दौड़ा । श्रेणिक आत्महत्या बताना सम्यक् प्रतीत नहीं होता। जब वे बहुत ने आशंका से भीत हो पितृ हत्या से प्रिय पुत्र को बचाने वर्षों तक कारागृह या पिंजरे में बन्ह थे तभी दु.खों से के लिए अपनी अंगूठी का ताल पुट विष खाकर प्राण त्याग सन्तप्त होकर वे शिर फोड़कर, तलवार की धार पर दिए । पूर्वोपार्जित निकाचित कर्म बन्ध के कारण वह गिर करके अथवा विष खाकर प्राणान्त कर लेते तो फिर प्रथम नरक में गया। भी उन पर आत्महत्या का आरोप संगत हो सकता था समीक्षा किन्तु तब तो उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उन्होंने ऊपर १ से लेकर ४ तक के प्रमाणों मे कही भी यह कृत्य तब किया जब कुणिक को उन्होंने अपने को श्रेणिक की आत्महत्या का किचित् भी उल्लेख नही है। मारने के लिए आते हुए देखा । उन्होंने विचारा होगा कि प्रमाण नं, २ तो इष्ट भोगों को भोगकर श्रेणिक का मरना यह दुष्ट न जाने कैसे दुख दे के मुझे मारे जिससे मेरे बताया है; कैदी होकर आत्महत्या करना नही बताया है। परिणाम अत्यन्त कलुषित हो जायें इससे तो अच्छा है कि यह प्रमाण विशेष प्राचीन है। 'प्रमाण नं० ५ तलवार की खुद अपने हाथ से प्राणान्त कर लू ताकि न इसे पितृहत्या धार पर गिर कर मरने की बात कही है वहां भी 'आत्म- का पाप न लगे और न कोई अन्य झंझट हो । श्रेणिक का हत्या' शब्द का प्रयोग नहीं किया है। दूसरी बात यह है यह प्रयत्न प्रतिरोधात्मक था। अगर वे खुले होते तो कि-राजा श्रेणिक तो बन्दी था एकाएक उसके पास अवश्य मुकाबला करते । जीवन से हारकर या थक कर तलवार कहां से आ सकती है ? और फिर तलवार को उन्होंने प्राणांत नही किया था किन्तु विकट परिस्थिति से धार पर गिरने की बात भी असगत है, वह तो तलवार विवश होकर उन्होने मृत्यु का वरण किया था। जैसे से अनच्छेद ही करता उस पर गिरता क्यों? क्षत्रियाणिया युद्ध मे अपने पतियों के हार जाने पर आक्रप्रमाण ने० ६ लिखा है कि-"अपना शिर मारकर मणकारियो के द्वारा अपनी गति खराब नहीं की जावे श्रेणिक ने आत्महत्या कर ली" । मूल संस्कृत में यहां इस खयाल से अग्नि कुण्ड मे कूदकर जौहर (वीरव्रत) कैसा कथन है यह ग्रंथाभाव से हम नहीं कह सकते। अङ्गीकार कर अपने प्राण दे देती हैं। जिस तरह यह श्रेणिक लकडी के कटघरे में बद था। अतः उस पर शिर आत्महत्या नही है वैसे ही श्रेणिक की नृत्यु भी आत्महत्या मारने से ही तत्काल मरने की बात कुछ संगत सी प्रतीत कायरता नही है। विद्वानों को गम्भीरता से इस पर नहीं होती क्योंकि कुणिक तो बहुत शीघ्र भगा हुआ आ मनन-चिन्तन कर अपना समुचित निष्कर्ष प्रकट करना रहा था इतने कम समय में यह सम्भव नही था। चाहिए । प्रमाण नं० ७.८-९ मौलिक नही है ये प्रमाण नं०६ यहां प्रसगोपात्त कुछ अन्य बातों पर भी विचार दिया के अधार से ही निमित हैं। प्रमाण नं. ७ में तो बाबू जाता है :कामता प्रसाद जी ने द्वि० संस्करण मे इस 'आत्महत्या' (१) पुण्याश्रव कथाकोश (जीवराज ग्रन्थमाला) आदि के कथन को ही हटा दिया है । शायद यह उन्हें पृष्ठ ३२ में हिंदी अनुवाद ने जठराग्नि का अर्थ केट में आचार्य सम्मत (प्रामाणिक) ज्ञात नहीं हुआ। बुद्धगुरु दिया है और घोणिक द्वारा उनका धर्म ग्रहण प्रमाण नं. १० में भी 'आत्महत्या' शब्द का प्रयोग करना बताया है। जबकि मूल ग्रन्थ में जठराग्नि को नहीं है। भागवत धर्मी-वैष्णव धर्मी बताया है कहीं भी बुद्ध धर्मी शास्त्रों में बताया है कि-राजा श्रेणिक ने समव- नही। हरिषेण-प्रभाचन्द्र नेमिदत्त के कथाकोशों में भी इस शरण सभा में १० हजार प्रश्न किए थे। वे भगवान् प्रसंग में श्रेणिक को चेलना से विवाह करने के पूर्व, महावीर के प्रमुख श्रोता थे। इसी से उत्तर पुराणकार भागवत-वैष्णव धर्म ही बताया है बुद्ध धर्म नहीं। उस ने उन्हें 'श्रावकोत्तम' लिखा है। वे क्षायिक सम्यग्दृष्टि समय तक तो बुद्ध का धर्म ही प्रचलित नहीं हुआ था।

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