Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 120
________________ 4. सिरोमनिवास की "साई" पारों मति में समकित होइ, यहे उत्पत्ति जानो तुम लोय। जे नर मुक्ति गए जिन कही, आगे में पुनि जैहें सही। विनास:-जान गर्व मति मंदता, निठुर वचन उद्गार। अब जात हैं भव्य अनेक, ते समकित फल जानहु एक ॥ रोद भाव आलस दसा, नास पांच प्रकार ॥ गणधर कहै सुनो हे राइ, समकित महिमा अन्त न आए। मिथ्यात्व के पांचों नामों पर कवि ने बड़ा ही सुन्दर धर्म मूल में तुमसौं कही, कवित्त लिखा है : सुनि श्रेणिक दृढ़ के सर्वही (श्रद्ध हो)॥ कवित्त इकतीसा : पच उदम्बर के अति चारों मे बुन्देली भाषा के शब्दों प्रथम एकांत नाम मिथ्यात, अभिग्राहिक दूजो विपरीत को किस चतुराई से संजोया है वह दर्शनीय है: आभिनिवेसिक गोत है। बेर मकौरा जामु अचार, करौंदा देर अतूत मुरार। विनय मिथ्यात, अनाविग्रह नाम जाको, कुम्हड़ा, गढ़ली, बिवा भटा, कलीदे फनकुली चचेडा जड़ा। चौथो ससय जहा चित भौर कैसो पोत है। सूरन सुरा अद्रक (आदऊ)गज्जरी, महाह कदमूल ले हरी। पांचमों अज्ञान अनभोगी कगहल जाके, हे पुनि अवर कहे जिन राई, इनमे जीव अनेक बसाई ।। उदै चैन अचेतन सो होत है, मधु का वर्णन तथा अतिचार के छन्द देखिए :एई पांचो मिथ्यात्व भ्रमावै जीव को जगत मे, सकल निंद्य रस माछी हरे, करकै वमन इकट्ठी धरै। इनके विनाश समकित को न उदोत है। अनेक अन्डा वर उपज तहां बहुत जीव रस बूड़े तहां ॥ सम्यक्त्व की महिमा के कुछ छन्द देखिए : अनेक जीव मरिक मह (मधु) होइ, बावर विकलत्रयक है, निगोद असैनी जानि । जउ किमि भक्ष धर्महि गोइ। म्लेच्छ खंड जिन भने कुभोग भूमि मन आनि ।। यज्ञ पिंड ले मह सौ देद, यह को भख पाप सिर लेइ॥ षद् अध जु भूमि नरक की खोटी मानूष जाति । अतिचार:तीन वेद दोइ वेद पुनि ए जानो दुख पांति ॥ नन (मक्खन) का चो दूध पिक सीऊ रे जे कहे। जब समकित उर्ज सुन भूप, ए सब पदवी धरे न रूप। अप्रासुक जो नीर थाने सधा नै जै लहै। यह सब महिमा समकित जानि, ___ मांस के अतिचार के उत्कृष्ट छन्द देखिए :होई जीव को सब सुख खानि ॥ होगु सलिल घी तेल चर्म की सगति जे रहे। नर गति में नर ईश्वर होइ, उपज तहां जीव अनेक मांस दूषण यह जिन कहे ।। देवनि मे पति जान्यो सोइ। जाको नाउ (नाम) न जान्यो जाइ, इह विधि भव जीव पूरन करे, अरु सेधो फलु कहो बताय । पुनि सो मुक्ति रमणि को वरे।। हाट चुनु अनगालो नीर साक पात्र फल हरित जुधीर। नभ में जैसे भान है ईम, रत्नत्रय मे चिन्तामणि दीस । जा मे तारि (२) चलै बहु भांति, लगे फफंडा छाड़ो जाति। कल्पवृक्ष वृक्षनि मे हार (श्रेष्ठ), कोमल फल है पत्र जु फूल त्वचा गवारि बहु बीजहु कूल ॥ देव जिनेन्द्र देवनि में सार॥ पांच व्रतो का वर्णन करते हुए सत्य धर्म (व्रत) का सकल नगनि में मेरु है जैसे, कवित्त छन्द कितना लालित्यपूर्ण बन गया है । जरा ध्यान सब धर्मनि में समकित तैसे। से पढ़िए :यही जानि जिउ (हृदय) समकित धरी, पावक ते जल होइ वारिधि तें थल होइ (श) सस्त्र भवसागर दुख जातें तरी॥ ते कमल होइ ग्राम होइ बनतें। बततप सयम धरइ अनेक, समकित बिनु नहीं लहै विवेक। कूप ते विवर होइ पर्वत तें धरा होइ, वासव (इन्द्र) जैसे कृषि करि सेवा कर, मेघ बिना नहीं फल को धरै । से दास होइ, हितु दुर्जन तें।

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