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संस्कृत त्रिसंधान ( देवशास्त्र गुरु) पूजा
प्रसिद्ध कटारिया ट्रान्सपोर्ट कम्पनी के संस्थापक हमारे चचेरे भाई बाबू सोभागमलजी कटारिया केकड़ी निवासी ( अहमदाबाद प्रवासी) का विवाह १६.२.५१ को हुआ था। बारात बसवा ग्राम गई थी वहां का दि० जैन शास्त्र भंडार पुराना है। वहां से हमारे पूज्य पिता जी और पं० दीपचन्द जी पाण्डया ३ प्राचीन हस्त लिखित गुटके लाये थे उनमें से एक गुटका वि० स० १५६३ का है उसमें ६० पत्र हैं। जिनमें संस्कृत - प्राकृत की अनेक रचनायें हैं जो प्राथ. शुद्ध हैं। इनमें संस्कृत "त्रिसंघान-पूजा" भी है, यह वही पूजा है जो आजकल देवशास्त्र गुरु पूजा (संस्कृत) के नाम से प्रसिद्ध है । इस 'त्रिसंघान-पूजा' में सात द्रव्य चढाने पर्यन्त प्रचलित पद्धति से मात्र इतना अन्तर है कि प्रचलित पद्धति में जहाँ देव शास्त्र गुरु की स्थापना का पृथक्-पृथक् निर्देश है वहां इसमें पृथक-पृथक पुष्पांजलि क्षेपण कर क्रमश: देव शास्त्र और गुरु की पूजा-प्रतिज्ञा की गई है। इसमे अर्ध का छन्द नही दिया गया है और ना ही अर्ध का विधान है। इससे आगे 'ऋषमोऽजित नामा शांति कुर्वन्तु शाश्वती' पर्यन्त पाठ है और उसके
बाद
अथ सिद्धभक्ति - कायोत्सर्गं करोम्यहं ॥
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्वसाहूण ॥ तावकायं पावकम्म दुच्चरिय मिच्छात्त वोस्सरामि । जय नमोऽस्तु ते अर्हन् ॥ अत्र जाप्य उच्छ्वास २७ दत्वा थोस्सामित्यादि सिद्धासिद्धिमम दिसतु ॥
जयमंगल भूयाण, विमलाण णाणदंसणमयाण । तइ लोयसेहराणं, णमो मया सम्वसिद्धाण || १॥ तत्र सिद्धेणयसिद्धे, सजमसिद्धे चरित्रसिद्धेय । जाणम्मिय, सिद्धे सिरसा णमंसामि ॥ २ । सम्मत्तणाण दसण, वीरिय सुहम तहेब अवगहण । अगुरुलहु मव्यवाहं, अट्ठ गुणा होंति सिद्धाणं ॥ ३ ॥ are श्रुतज्ञानभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं ॥
D पं० श्री रतनलाल कटारिया
अर्हद् वक्त्रप्रसूतं, गणधररचितं द्वादशांगं विशालं । चित्रं ब्रह्वर्थं युक्तं मुनिगणवृषभैर्धारितं बुद्धिमद्भिः ॥ मोक्षाग्रद्वारमृतं व्रतचरणफलं शेयभावप्रदीपं । भक्त्या नित्यं प्रबंदे, श्रुतमहमा खिलं सर्वलोकंकसारं ॥ १ ॥ जिनेन्द्र वक्त्र प्रतिनिर्गतवचो यतीन्द्रभूतिप्रमुर्खगंणाधिपैः । श्रुतं घृततैश्चपुनः प्रकाशितं द्वि षटप्रकारं प्रणमाम्यहश्रुतं २ कोटीश द्वादशचैव कोटयो, लक्षाण्यशीतिस्त्रयधिकानिचैव । पवाशद्ष्टौ च सहस्रसंख्यमेतत् श्रुत पंचपदं नमामि ॥ ३ ॥ अरहंत भासियत्थ, गणहर देवेहिं गथियं सम्मं । पणमामि भतिजुत्तों सुयणाणमहोबहि सिरसा ॥४॥ अथ आचार्यभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं ॥
ये नित्यं व्रतमंत्र होमनिरता, घ्यानाग्नि होत्राकुलाः । षट्कर्मामिरता स्तपोधनघनाः, साधुक्रिया साधनः ॥ शील प्रावरणाः गुणप्रहरणश्चन्द्रार्कतेजोऽधिकाः । मोक्षद्वार कपाटपाटनभटाः प्रीणन्तु मां साधवः ॥ १ ॥
गुरवः पान्तु वो नित्यं ज्ञानदर्शननायकाः । चारित्रार्णव गंभीराः, मोक्षमार्गोपदेशकाः ॥२॥ छत्तीसगुण समग्गे, पंचविहाचारकरण संदरिसे । सिस्सानुग्रह कुसले, धम्म । इरिए सदावंदे ||३॥ गुरुभत्ति संजमेण य तरंति ससार सायरं घोर । छिति अट्ठकम्मं, जम्ममरण न पार्वति ॥४॥ वउतव सजम् णियमतुणु, सीलु समुज्जलु जासु । सो
'बुच्चइ परमायरिङ, वदण किज्जइ तासु ||५|| नवकोडितिहिऊणियह, एत्तिउ मुणिहि पवाणु । तिरयणसुद्धा जेणवहि, ते प. वहिणिवाणु ॥६॥ मूलगुर्णाह जे सजुदा, उत्तरगुणाहि विशाल । ते हउ चंदाउ आयरिय, तिहुबण तिष्णि वि काल ॥७॥ अट्ठ दी सत्तता छन्नव मज्झम्मि संजदा सब्वे । अंजलि मउलिय हत्थो, तिरयण सुद्धि नम॑सामि || || fग गिरि सिहरत्या, बरिसाले रुक्यमूल रमणीरा । सिसिरे बाहिर सयणा, ते साहू बंदिमो णिज्वं ॥९॥