Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 89
________________ आत्म अनुभव कैसे हो? बुद्धि की है। उस अज्ञानता का फल यह संसार है। इसी है शेय का आकार हो रहा है । उस ज्ञेयाकार को मत देख, अज्ञानता से तूने कर्म का निर्माण किया है। अगर आनन्द ज्ञानाकार को देख जो तू है । वहाँ पर जेगकारों को देखकर को प्राप्त करना है तो कर्म का मालिक न बनकर ज्ञान क्षुब्ध हो गया। जहाँ जेयाकार हैं वही ज्ञानागार भी है। का मालिक बन जा जो तू वास्तव मे है । तब तेरा अज्ञान पहले मन को शात करे बाहर फैनते हुए को संकुचित दूर हो जायेगा और जिस अज्ञानता से कर्म का निर्माण करें जब उपयोग शान्त होगा उस समय स्वांस चलता हा होता था वह नही रहने से कर्म का निर्माण नहीं होगा। प्रगट दिखाई देने लगेगा, अनुभव में आयेगा उस समय पुगना कर्म अपना रस देता जा रहा है और खत्म होता देखने वाले पर जोर देने पर यह शरीर पृथक् दीखने जाता है तू अपने ज्ञान के रस का पानकरता रह और कर्म लगेगा । सबाल पृयक् कहने का विचारने का नही परन्तु कर्म के रन का स्वाद मत ले। धीरे धीरे जो इकट्टा कर्म पृथक् देखने का है। जहाँ ज्ञाता पर दृष्टि जाती है है वह खत्म हो जाता है तब कम का कार्य शरीरादिक विकल्प आधे-अधूरे ही रुक जाते हैं। यह तो निषेधात्मक और विकलादि का अमात्र होकर मात्र जो तू है,वह रह रूप है परन्तु ज्ञानानुभूति होने पर शरीर भी दिखना रह जाता है यही परमात्मापना है। तू अगर ज्ञान का मालिक जाता है। इसका काल कम है परन्तु शरीर का प्रकट नही है तो तूने विकल्पों और शरीर के माथ एकत्व स्था- पृथक दी बना इसका काल बहुत है। गि किया है इमनिये उस विकलो का कर्ता तू ही है और देखना है कि शरीर रहते हुए इसमे आनापना आ अगर ज्ञान का मालिक है तो विकल्पो का कर्ता कर्म त रहा है कि परपना आ रहा है अगर अपनापना आ रहा नहीं है। जो मालिक है वही कर्ता है । ज्ञान भी है कर्म भी है तो अज्ञानता पड़ी है अगर परपना आ रहा है तो है तू चाहे ज्ञान मे एकब कर सकता हैं। जिससे तेरा अज्ञनना नही रह सकती। अगर यह अपने रूप दीख रहा एकत्व है। चाहे कर्म से जोड़ ले परन्तु कर्म के साथ तेरा है तो ससार गाढा हो जायेगा। राग गाढा हो जायेगा एकत्व नही हैं. तू वह नही है। अगर पर रूप दीख रहा है तो ससार क्षीण होने लगेगा। इस प्रकार अनुभव करने के लिए पहल ज्ञान को जो राग छुटने लगेगा। बाहरी इन्द्रियों में फैला हुआ है और बाहर की तरफ जा क्रोधादि-रागादि के दूर करने का उपाय भी यही है रहा है उसको बाहर से हटाकर, इन्द्रियो से हटाकर, अपने जहा क्रोध को जानने की चेष्टा की जानने वाले की स्वरूप के सन्मुख करें। फिर उस ज्ञान को मन सम्बन्धी मुख्यता हुई कि क्रोध विलय होने लगा। अगर घोडे पर विकल्पो से हटाकर स्वरूप सन्मुख करें। और अपने में चढ़े हुए हैं और घाड़े को अपने आधीन कर रखा है तब अपने को ही शेर बनाये नब फल ज्ञानरूप अनुभव में आता भी पर में लगे हैं परन्तु अगर उससे नीचे उतर गये तो है। मन को विकारों से शून्य करना है जहाँ विकल्पों से अपने में है। क्रोधादि को दबाने से वे नहीं मिटते । शून्य हुआ वा आत्मसंवेदन हो जायेगा। जैसे जब बाहर एक व्यक्ति दूसरे की छाती पर बैठा है तब भी पर में गाय को चाटने को नहीं रहता तो वह अपने को ही में लगा है। पर के आधीन है। और दूसरा अगर उसकी चाटने लग जाती है। छाती पर बैठा है तब भी पराधीन है स्वाधीनता तो तभी इस जीव ने दोनों तरफ ही गनती की है। बाहर में हो सकती है जब वह अजग खड़ा है। व्यक्तियों से कुश्ती भी और भीतर में भी। बाहर में कहा गया कि जिसकी नहीं लड़नी है परन्तु उसके साथ एकत्व छोड़कर अलग मति है उसको देख जिसमें मूर्ति है उसको मत देख । वहाँ हटकर उनको देखना है । यह देखना ही उससे अलग कर पर तू जिसमें मूर्ति थी उस पाषाण अथवा सोने चांदी को देता है । भीड़ में बड़े हैं, भीड़ मे से दृष्टि हटाकर अपने देखने लगा। और इमलिए जिमको मूर्ति थी उसको नहीं को देखिये अलग हो जायेंगे। देख सका । भीतर में कहा कि जिसमें मूर्ति है उसको देख यह देखना यह सम्यक् देखना ही-देखने वाला बना जिसकी मूर्ति है उसको मत देख । जिसका शान में आकार रहना ही धर्म का मूल है यही से धर्म की शुरूवात होती है।

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