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जरा-सोधिग
मिलने से उस प्रसंग को विशेष रूपों में छपाने लगते और अन्त तक (और आज भी) इससे दूर रहे उन्होंने हैं । बस, कदाचित् साधु को लगने लगता है कि नही स्वीकारा जब कि कई मुनि श्रावकों की भक्ति के मुझसे उत्तम और कौन ? उसका मोह (चाहे वह प्रभावना वशीभूत हो अपने स्वयं के पद को भुला बेठते हैं। किसी के प्रति ही क्यों न हो) बढ़ने लगता है और वह भी ऐसे मुनि के जन्म की रजत, स्वर्ण या हीरक जयंती मनाई कार्यों को प्राथमिकता देने लग जाता है जिसे जनता जाती है तो काल गणना माता के गर्भ निःसरण काल से चाहती हो, उसके भक्त चाहते हों और जिससे उसका की जाती है जैसे कि आम संसारी जनों में होता है। विशेष गुणगान होता हो। वह देखता है-लोगों की रुचि जब कि, मुनि का वास्तविक जन्म दीक्षा काल से होता हैमन्दिरों के निर्माण में है तो वह उसी में सक्रिय हो जाता वीतराग अवस्था के धारण से होता है और आगम में भी है, साहित्य मे जन-रुचि है तो वह साहित्य लिख-लिखाकर मुनि अवस्था को ही पूज्य बताया गया है। क्या मुनि कोई उसके प्रकाशन मे लग जाता है या बाहरी शोध-खोज की तीर्थकर हैं; जो उनको कल्याणको से तौला जाय? पर, बातें करने लनता है अपनी खोन और कर्तव्य को भूल क्या कहें श्रावक तौलते हैं और मुनि तुलते हैं। आखिर जाता है। आज अविचल रहने वाले साधु भी हैं और वे .जरूरत क्या है--घिसे-पिटे दिनों को गिनने की? क्या इससे धन्य हैं।
मुनि-पद ज्यादा चमक जाता है ? धन्य है वे परम वीय
रागी मुनि, जो इस सबसे दूर रहते हैं।-"हम उनके ___ मुनियों की जयन्तियाँ मनाने उन्हे अभिनन्दन ग्रथ या
दास, जिन्होंने मन मार लिया।" अभिनंदन-पत्रादि भेंट करने कराने जैसे सभी कार्य भी श्रावकों से ही सम्पन्न किये जाते है । कैसी विडम्बना है हमे यह सब सोचना होगा और मुनियों के प्रति कि-'मारे और रोने न दे'? हम ही बढ़ावा दे और हम चिता व्यक्त न कर, पहिले अपने को सुधारना होगा। ही उन्हे उस मार्ग मे जाने से रोकने को कहें ? ये तो ऐसा काश, हम श्रावक उन्हें चन्दा न दें तो मुनि रसीद पर ही हआ जैसे साधू कमरे मे बैठ जाय और गृहस्थ आपस हस्ताक्षर न करें, आदि। यदि हम ठीक रहें और श्रावकमें ऊपर एक पखा फिट कराने की बाते करें? साधु मना सघ को कर्तव्य के प्रति सजग रखने का प्रयत्न करें तो करें तो कहे-महाराज यह तो हम श्रावको के लिए ही सब स्वयं ही सही हो - पदेन सभी मुनि उत्तम हैं। लगवा रहे हैं, आदि। जब पखा लग जाय तब वे ही धावक बाहर आकर कहे कि ये कैसे महाराज है-'पखे का उप
कैसी विडम्बना है कि हम अपने नेताओं को और योग करते हैं ?
अपनें श्रावक-पद को तो सही न करें और पूज्य मुनियों
की तथा परायों की चिंता में दुबले होते रहें। जरा हमने देखा पू० प्रा० श्री धर्मसागर जी का 'अभिनंदन- सोचिए ! अन्य लोगों का कहना है आचार्य श्री इसमें सहमत न थे
-संपादक
धर्म-ध्यान युत परम विचित्र । अन्तर बाहर सहज पवित्र ।। लोक लाज विगलित भय हीन । विषय वासना रहित मदीन ॥ मान दिगम्बर-मुद्रा धार । सो मुनिराज जगत हितकार ॥ एकबार लघु भोजन करें। सो मुनि मुक्ति पंथ.को परे॥
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