Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 115
________________ सभी नारी एवं पुरुष पात्र सजीव हो उठे हैं । हम यह प्रयास किया है, और वह यथार्थ वस्तु स्थिति से कुछ दूर नहीं कहते कि वह शुद्ध इतिहास है-वह एक उपन्यास नहीं प्रतीत होता। आज के युग में भी वैसी भावना एवं ही है, किन्तु इतिहास की नींव पर कथाकार की रंगबिरगी स्थिति के पनपाये जाने की परम आवश्यकता है। कल्पना से निर्मित ऐसा भव्य उपन्यास रूपी प्रासाद है, दूसरी बात यह है कि जिस देश, जाति, राष्ट्रमा जिसमें चरित्रनायिका तथा उससे सम्बन्धित व्यक्तियों के युग में नारी शक्ति प्रायः पूर्णतया दमित एवं शोषित यी, व्यक्तित्व तो उपयुक्त रूप में उजार हुए ही हैं, तत्कालीन वह तत्तद पतनकाल या अन्धयुग ही रहा । यों भी कह धर्म एवं संस्कृति, लोकजीवन एवं राजनीति, मान्यताएं सकते हैं कि जब जब उत्थान एवं अभ्युदय रहा, पुरुष के एवं विश्वास भली प्रकार प्रतिबिम्बित हैं। साथ नारी शक्ति प्रबुद्ध, सुशिक्षित, कर्मशीला और पुरुष एक बात है कि उपन्यास के लेखक एव अनुवादक की सक्रिय सहयोगगिनी, बहुधा मार्ग दशिका भी रही। धार्मिक दृष्टि से दोनों ही सज्जन अजैन हैं, जबकि चरित्र- इतिहास इसका साक्षी है। बहुत आगे-पीछे न जाकर, नायिका शान्तला देवी स्वयं तथा अन्य पात्रों में से पांचवीं-छठी शती ई० से लेकर १५ वी- 1वीं ई०पर्यन्त अधिकतर जैन धर्मावलम्बी हैं। विद्वान लेखक ने तत्कालीन दक्षिण भारत मे, और विशेषकर कर्णाटक में, जैन धर्म का जन आचार-विचार, मान्यताओं, विश्वासों, परम्पराओं अभ्युदय प्रायः अविछिन्न रहा । और उसकी इस प्राणवता नौर प्रथाओं को, उस युग, क्षेत्र और समाज के पूरे एवं तेजस्विता का श्रेय यदि दिग्गज जैनाचार्यो, सन्तों एवं परिवेश को आत्मसात करने की श्लाघनीय चेष्टा की है। वीर पुरुषों की है, तो उन सैकड़ों इतिहाससिद्ध जैन तथापि, उससे यह अपेक्षा करना कि उसे उक्त तथ्यो की महिलारत्नों को भी है, जिन्होंने उक्त काल, क्षेत्र और एक सुविज्ञ एवं प्रबुद्धजैन जैसी सहज स्वाभाविक जानकारी परम्परा को अलंकृत किया था। होयसल चक्रवर्ती विष्णुरो.एक ज्यादती है। इसी कारण एक ऐसे जैन पाठक को वर्धन की पट्टमहादेवी शान्तला (१०८३-११२८ ई.) पत्र-तत्र ऐसा लग सकता है कि अमुक तथ्य ऐसा नहीं या उक्तकालीन जैन नारी-शक्ति के आदर्श का सफल प्रतिऐसा नहीं हुआ हो सकता। किन्तु लेखक की तद्विषयक निधित्व करती है। अनभिज्ञताएं या प्रांतियां क्षम्य ही कही जायेंगी-कम से लेख के प्रारम्भ में विलक्षण महिला के लिए हमने कम उपन्यास के प्रवाह एव सोद्देश्यता पर उनसे कोई 'जगती-माकिनी विशेषण प्रयुक्त किया है-वह हमारा प्रभाव नहीं पड़ता। यों अनेक प्रसंग तो ऐसे जेनत्वपूर्ण बन आविष्कार नहीं है. कथाकार नागराजराव जी ने बालिका पड़े है कि शायद कोई जन्मजात सुविज्ञ जैन धर्मावलम्बी मावलम्बा शान्तला के सुयोग्य अध्यापक कविवर कोकिमय्य जी के या भी शायद वैसा न लिख पाता । महत्व की बात यह है कि मुख से उसे कहलाया है। हम कह नहीं सकते कि इसके उस युग एवं प्रदेश में जिन धर्म एक प्राणवत, प्रभावक लिए कोई ऐतिहासिक आधार है, अथवा यह विद्वान एवं पर्याप्त व्यापक धर्म था, और उसका प्रमुख कारण लेखक की अपनी सन्म है-यदि उनकी अपनी सूप्स तो शायद यह भी था कि उसके अनुयायी समदर्शी, उदार, विलक्षण है, और सर्वथा सार्थक भी। तत्कालीन बभिसहिष्णु, समन्वयवादी और सदाचारी थे, वे धर्म तत्व में लेखों आदि में उस महादेवी के रूप-सौदर्य की प्रशंसा उसे निहित मानवीय मूल्यों पर अधिक बल देते थे और भाव- -चन्द्रानने, लावण्यसिंधु, अगण्पलावण्यसम्पन्ना, कश्मननात्मक एकसूत्रता के प्रबल पोषक थे। फलस्वरूप जैन, रति, मनोजराजविजयपताका, कन्देवलम्बालकालम्बितशैव, वैष्णव, वीरव, बौद्ध आदि विभिन्न धर्मों के यथा- चरणनख-किरणकलापा, मृदुमधुर-बचनप्रसन्ना, सवर्षसम्भव निर्विरोध सामंजस्य से एक समन्वित धर्म-संस्कृति तमयोचितवचनमधुरसस्पंदि-बदनारविंदा, आदि कहकर (कम्पोजिट रिलीजसकल्चर) लक्षित हो रही थी। कम की है। उसके विद्या-बुद्धिवैभव का सूचन-प्रत्युत्पन्नसे कम थी नागराजराव ने ऐसा ही आभास देने का सफल वाचस्पति, विवेकेकवहस्पति, सकलकलागमानने, सकल

Loading...

Page Navigation
1 ... 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146