Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 109
________________ साक्षात्कार-प्रसंग में बात-बात में बात निकलती है। उस दिन डा. नन्दलाल जैन आ गये। मैंने पूछा-कैसे पधारना हमा। बोले-एक उत्सव में आया था । आपका 'अनेकान्त' मुझे इधर खींच लाया । सोचा, आपके भी दर्शन करता चलू । 'अनेकान्त' मिलता रहता है, उसमें खोज पूर्ण सामग्री रहती है । आप जो बहुत से नए आयाम दे रहे हैं; और खासकर 'जरा सोचिए' में जो मुहे उठाए जाते हैं, उनसे नई दिशाएँ मिलती हैं। मैं तो यहां तक कहूंगा कि उससे सुप्त-अंतरघेतना जागृत जैसी हो जाती है और ऐसा लगता है कि उसे पढ़ता ही र । मैंने कहा-आप की बड़ी कृपा है, इस कृपा के लिए धन्यवाद । वे बोले-कोरे धन्यवाद से काम न चलेगा । मैं तो आप से कुछ हीरे प्राप्त करने आया हूं। आपके मुखारविन्द से एक-दो बात तो सुन । कृपा कीजिए। मैंने कहा- तो मैं हीरों का व्यापारी हूं और ना ही मेरा मुख अरविन्द है । आप तो किसी बड़े उत्सव में आए थे, आपने बड़े-बड़े वक्ताओं को सुना होगा । पहिले तो आप ही मुझे उन प्रसंगो से अवगत कराएं जो आपको उत्सव में उपलब्ध हुए। जब आप अनायास आ ही गए हैं तो क्यों न मैं उन प्रसंगो से लाभ उठाऊँ ? वे बोले-प्यासा क्या दूसरों की प्यास बुझाएगा? मुझे तो उत्सव में कुछ नही मिला । मैं जिस साध को लेकर आया था-अधूरी ही रही। बल्कि निराशा ही हाथ लगी । यहां भी वही देखा जो अन्य जगहों में देखता रहा हूं। लाखों का खर्च करके अनेकों विद्वान, उत्तम स्टेज-सजावट, उत्तम भोजन की उपलब्धि आदि के सभी व्यवस्थित उपक्रम किए गए, बनेकों प्रस्ताव पास हुए। पर, किसी ने जैन की मूल प्रक्रिया पर प्रकाश नहीं डाला । हां, अहिंसा के विषय में जरूर कुछ टूटा-फूटा सा उल्लेख आया । एक ने तो कहा कि जब अहिंसा को औरो ने भी माना है और जैन भी इसके पुजारी है तो हमें इसी पर जोर देना चाहिए । आज संसार त्रस्त है, उसका त्रास अहिंसा से ही मिट सकेगई, आदि । जब कि त्रास की मूल जड़ परिग्रह है, जिसे लोग बढ़ाए जा रहे हैं । इसका भाव तो ऐसा हुआ कि रोग बढ़ाते जाओ और इलाज कराए जाओ। मैंने कहा-ठीक है जब सभी इसमे एक मत हैं तो यही उत्सव की बड़ी उपलब्धि है प्रेश मान लीजिए। वे बोले-क्या कहने और प्रस्ताव पास करने मात्र से उपलब्धि हो जाती है या आचरण करने से उपलब्धि होती है। भाषण तो बहुत से सुनते हैं उन्हें आचरण में कितने लोग उतारते हैं। मैंने कहा--आज के उत्सवों का प्रयोजन इतना ही रह गया है कि हमारी बात को अधिक लोग सुन-समझ सकें। दरअसल बात यह है कि हम दूसरो की चिन्ता करने के अभ्यासी बन चुके हैं। जैसे आंख दूसरों को देखती है अपने को नहींहमें पड़ोसी, देश और विदेश सबको सुधारने की चिन्तह-सबमे कमी दिखती है । पर, हम अपनी कमी को नहीं देखते हैं । जैन-तीर्थंकरों ने ऐसा नही किया। उनका पहिला कार्य आत्महित रहा-वे पहिले केवल ज्ञानी बने बाद को समवसरण को संबोधित किया। यदि हम दर्पण लेकर देखें तब हमारी आंखें स्वयं को देख पाएंगी। यदि हम अपने अन्तर में झांके तो बाहर के सुधार की सब बातें धरी रह जाएंगी-हम अपने दोषों को देख सकेंगे और सुधार में लम सकेंगे। मैं तो ऐसा समझ पाया हूँ कि विचार, आचार, और प्रचार इन तीनों का अटूट सम्बन्ध है। यदि आप प्रचार करें तो वह आचार विना अधूरा है और प्राचार भी विचार विना अधूरा है । कुछ लोग विचार करते हैं आचरण नही करते । भला, जिनके स्वयं का आचरण नही उनके द्वारा प्रचार कमा? वह तो ढोल में पोल ही होगा। ये जो हमारी विद्वत्समाज,जिमका सारा जीवन जिणवाणी की उपासना में बीता। जब बह ही शास्त्रों के अनुकूल आचरण नहीं कर सका-बीतरागी नही बन सका-उसे धन और धनवानों की ओर ताकने को मजबूर होना पहा, तब यह कैसे हो सकता है कि उसके वीतराग-वाणी रूप भाषण या प्रचार का असर चन्द-क्षरणों में हो जाय ? खिता तो ऐसा है कि जैसे व्यापारी वर्ग भी घाटे में जा रहा हो। वह लाखों खर्च करके भी मात्र नश्वर-यश अर्जन में सया हो---उसी के लिए सब कुछ कर रहा हो-आत्म-नाम से उसे कोई प्रयोजन ही न हो, वह भी परायों में दूब गया हो। [शेष बावरण तीन पर]

Loading...

Page Navigation
1 ... 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146