Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 87
________________ संस्कृत त्रिसंधान (देवशास्त्र गुरु) पूर्वा प्रभातकृते प्रभाकर ते में राजकीति और तपोभूषण इन दो साथी मुनियों का प्रतिष्ठस्य प्रतिष्ठस्या उल्लेख किया है किन्तु रचनाकार का वहाँ भी नाम नही पुष्प ३ वर्यान् सुचर्या- वर्यचर्या दिया है। चर्चासागर में पांडे चम्पा लाल जी ने इस पूजा कपनक धुर्यान् कथने सुधुर्यान् के कर्ता श्री नरेन्द्र सेनाचार्य बताये है। एक पं० नरेन्द्रसेन फल मनसाप्य-गम्यान् मनसामगम्यान आचार्य सिद्धांतसार सग्रह' के कर्ता भी हैं शायद ये नहीं फलाभिसार फलायसार हों तो इनका समय १३ वीं शताब्दी होना चाहिये। संध्यं सुविचित्र त्रिसधान विचित्र १३-इस पूजा में सिर भक्ति, श्रुतभक्ति, प्राचार्य -इस पूजा में आजकल प्रचलित अर्धका पलोक- भक्ति के प्रसिद्ध लघु पाठ दिए हैं फिर भारती का पाठ "सद्वारिगधाक्षत पुष्पदामैः" नहीं दिया गया है। "ये दिया है। आरती का पाठ इस गुटके में नन्दीश्वर तीर पूजां जिननाय शास्त्र यमिनां" इस श्लोक को पुष्पांजलि पूजा मे भी दिया है वहाँ विमल नाथ की भारती दी है रूप में दिया है, जबकि आजकल इस श्लोक को आशीर्वाद पाठ भी दूसरा है और यहाँ शांतिनाथ एवं ऋषभदेव की रूप में दिया है। आशीर्वाद की प्रणाली आधुनिक है इस आरती दी है और पाठ भी भिन्न दिया है। ये सब भक्ति पत्रा में वह नहीं अपनाई है। आजकल अर्ध का अर्थ ८ और आरती के पाठ आजकल की देवशास्त्र गुरु पूजा में द्रव्यों का समूह लेते हैं किन्तु पहले अर्ध का अर्थ पुष्पांजलि नहीं है। प्रत्येक भक्ति के पहले कृत्य विज्ञापना रूप में ही लेते थे जैसा कि सागर धर्मामृत अ० २ श्लोक ३० की कायोत्सर्ग बताया है और फिर भक्ति पाठ बताया है सोपज्ञ टीका में बताया है। पद्मनदिपच विशतिका में भी प्राचीन अनेक शास्त्रों (क्रियाकलापादि) में यही पद्धति दी जिन पूजाष्टक में फल के बाद पुष्पाजलि ही दी है। इस है किन्तु आजकल लोग पहले भक्ति पाठ बोलते हैं फिर गुटके की अन्य पूजाओं में भी यही शैली दी है। १०-ऋषभोऽजित नामा च" जयमाला के ये ६ उसका कायोत्सर्ग करते हैं पाठ भी ऐसे ही छपे हैं। श्लोक नंदीश्वर द्वीप पूजा में भी पाये जाते हैं उसमें ये आशा है विद्वान पाठक इन पर तुलनात्मक अध्ययन के साथ गम्भीर विचार करेंगे और समाज को नई बातों बर्तमान कालीव २४ तीर्थकरों के नामो के रूप में दिये है। से अवगत करायेंगे। जो वहाँ आवश्यक और सगत हैं क्योकि वहां भूत भविष्यत पुस्तक-प्रकाशकों से भी निवेदन है कि वे इस त्रिसंधान कालीन २४-२४ नाम भी दिये हैं अतः वर्तमान कालीन पूजा को अविकल रूप से पूजापाठ सग्रहों में अवश्य स्थान नाम भी आवश्यक हैं जबकि यहा असंगत से हैं। देन का उपक्रम करेंगे। ११-इस पूजा मे आजकल देव शास्त्र गुरु की अलग विक्रम स० १५६३ के इस गुटके मे १५ वीं शताब्दी अलग अपभ्र श भाषा मे ३ जयमाला दी हुई है वे इस के चन्द्र भूषण के शिष्य पं. अभ्रदेव की ५० श्लोक की त्रिसंधान पूजा में कतई नहीं हैं। "वताणुट्ठाणे..." यह श्रवण द्वादशी कथा" भी संकलित है। यह सुन्दर संस्कृत देव जयमाल पुष्पदंत कृत 'जसहर चरिउ' के प्रारम्भ मे भाषा में रचित है और प्रायः शुद्ध रूप में दी हुई है। पाई जाती हैं वही से उठाकर यहाँ रखी गई है। शास्त्रगुरु की अपभ्रंश जयमालायें भी इसी तरह अन्यकृत हैं। अगर विज्ञपाठकों ने रुचि प्रदर्शित की तो उसे भी प्रकट किया जावेगा। १२-इस त्रिसंधान पूजा के कर्ता कौन हैं यह आदि दिनांक १८.६.८४ रतनलाल कटारिया अन्त में कहीं नही दिया है। रचना के मध्य, पुष्पांजलि के केकड़ी (अजमेर-राजस्थान) श्लोक-"पुष्याढया मुनिराजकीर्ति सहिता भूत्वा तपोभूषण ३०५४०४ टिप्पण-जन हितैषी भाग ५ (सन् १९०८) अंक २ पृ०१०.११पर श्री नाथूराम प्रेमी ने लिखा-काष्ठासपी बावकों में अक्षत से पहिले पुष्प पूजा का रिवाज है। अग्रवाल नरसिंह मेवाड़ा आदि थोड़ी सी जातियां इस संघकी अनुगामिनी हैं । मूल संघ और काष्ठ संघ के श्रावक एक-दूसरे के मंदिरों में बाते-जाते हैं और प्रायः एकही माचार-विचार में रहते हैं।"

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