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परा-सोधिए
दोनों ही दिशाबों में उदासीन है-ये मात्र भाषान्तरों पढ़ने में आता है कि जिनवाणी गणधर देवों द्वारापी (जिनसे कहीं २ भाव-स्खलित भी होता है) के प्रचार में गई। जैसे-- लगे हैं और भविष्य के लिए जैन-सिद्धांत मर्मज्ञ विद्वानों के
तीर्थकर की धुनि गणधर ने सुनि अंगरचे चुनिशान उत्पादन-प्रयलो में भी शून्य हैं।
मई। इस बात को दृढ़ता के साथ कहने मे हमे तनिक भी
सो जिनवर वाणी शिवसुखदानी त्रिभुवनमानी पूज्य संकोच नहीं कि-आयु के किनारो पर बैठे सिद्धान्त के
भई ॥'-आदि। धुरन्धर गिने-चुने वर्तमान विद्वानों के बाद इस क्षेत्र में अंधेरा ही अंधेरा होगा। और हम नही समझ पा रहे कि
ये तो सब जानते हैं कि सर्वज्ञ का ज्ञान पूर्ण और तब सिद्धांत के किन्ही रहस्यो को समझने-समझाने के लिए
युगपत है । वह निर्विकल्पक और विचार रहित भी है। हम किसका मुंह देखेंगे ?
उसमें समस्त द्रव्यों की भूत-भविष्यत् और वर्तमान-कालीन __यद्यपि प्रचलित प्रयत्नों से ऐसा आभास तो होता है
समस्त-पयायें अस्तिरूप में स्वाभाविक, युगपत् मलकती हैं कि भविष्य मे हमें लच्छेदार-मोहक भाषा-भाषी अच्छे
-उसमें अपेक्षावाद के अवसर और कारण दोनों ही नहीं व्याख्याताओं की कमी तो न रहेगी-वे सभा को मोहित
हैं । क्योकि अपेक्षावाद श्रुज्ञान पर आधारित हैं और वह
नयाधीन भी है-वह सकलप्रत्यक्ष केवल ज्ञान की उपज भी कर सकेंगे तथापि आगम की मूल भाषा और जैनदर्शन-न्याय के रहस्यों से अपरिचित होने और आद्यन्त मूल
नही है। इस बात को ऊपर दिए गए उद्धरणों से भी ग्रंथों के पठन पाठन से शून्य होने के कारण उनमें सिद्धांत
स्पष्ट जाना जा सकता है । उममे 'आदेशवसेण' और 'नयके रहस्यों को उद्घाटित करने की क्षमता दुर्लभ होगी।
योगात् न सर्वथा' पद इसी बात को स्पष्ट करते हैं।
फलतः सर्वज्ञ को दिव्य ध्वनि में उनके ज्ञान के अनुरूप फलत:-आवश्यकता है
प्रचार करने की अपेक्षा आज मूल के संरक्षण और द्रव्या का कालिक प्रत्यक्ष-आस्तत्व हा मलकता ह-उसमें उसके तल-स्पर्शी ज्ञाताओं को तैयार करने की। आप इस
नास्तित्व के झलकने का प्रश्न ही नहीं उठता। अर्थात थे, दिशा मे क्या कर रहे हैं ? जरा सोचिए ?
जो है, उसे जानते हैं, नही, नामक कोई पदार्थ ही नहीं
जिसे वे जान सके या जानते हो। स्यावाद का नहीं भी २. क्या दिव्य-ध्वनि स्याद्वाद-रूप है? अपेक्षा कृत ही है और वह समय के व्यवहार की दशा में
"सिय अत्यि णत्थि उहयं अवत्तन्वं पुणो य तत्तिदय । है जबकि केवल ज्ञान में तीनों कालों की विवक्षा ही नहीं दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण सभवदि ॥"
है-सभी युगपत है । एतावता ऐसा मानने में कोई आपत्ति तात्पर्यवृत्ति :-आदेसवसेण प्रश्नोत्तरवशेन । नही होनी चाहिए कि जिसे हम जिनवाणी कहते हैं और बालबोधनी-विवक्षा के वश से ॥"
जो 'स्याद्वाद-रूप कही जा रही है वह पूर्ण-श्रुत ज्ञानी गण
-पचास्तिकाय, १४ धरों द्वारा विविध • यों के सहारे वादशागों में गूथे जाने "कथंचित्ते सदेवेष्टं कचिदसदेव तत् ।
पर 'स्याद्वाद रूप में फलित होती है। यानी गणधर देव तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ।।'
वस्तु के समस्त अशो को युगपत न जान पाने के तथा न वृत्ति:-नयस्यवक्तुरभिप्रायस्य योगो युक्ति- कह पाने के कारण अपेक्षा के द्वार क्रमशः उसका दोहन नेपयोगस्तस्मान्नययोगादमिप्रायवशादित्यर्थः ।" करते है और उस दोहन-प्रकार को 'स्याद्वाद' कहा जाता
आप्तमीमांमा १४ है। भाव ऐसा समझना चाहिए कि-जिनवर की दिव्यतीर्थकरों की दिव्यध्वनि स्याद्वादरूप-विविधनय- ध्वनि में जिन भगवान के द्वारा कोई अपेक्षा कल्पित नहीं रूपी क लोलों से विमल है, ऐसा पढ़ने में आता है, जैसे- की जाती-उनकी ध्वनि अपेक्षावाद स्यावाद रहित ही 'यदीया वाग्गंगा विविधनयकल्लोलविमला।' और यह भी होती है । और श्रुतज्ञानी गणघरों द्वारा, अक्षरो द्वारा प्रकट