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तेरे बचनपीयूष रस को सुरुचि ही बस । प्रेरती,
बल से मुझे तव गुण कथा के कथन में है घेरती। जो तरल लहरों से क्षुभित बन उदधि बढ़ता पर्व में,
है हेतु चन्द्रोदय नियम से नाथ ! उसके गर्भ में ॥८॥ मज्ञान-मोह समूह भगवन् ! हृदय में मेरे घुसा,
उसको हटाने के लिए है शक्त तव प्रवचन उषा। जो कन्दरा में तिमिर चिरतर सूथिर बनकर रह रहा,
उसको हटा सकती वहाँ से एक उज्ज्वल ही प्रभा || हे बोधि दायक! नाथ ! मेरी यदपि वाणी हीन है,
जो नय प्रमाण सुरीति-गुणभूषण विहीन मलीन है। तो भी भवन में तव कथा से रम्य वह होगी तथा,
जल बिन्दु शुक्ति प्रसंग से बन मोति मन हरती यथा ॥१०॥ हे नाथ ! चित से भी अगम्य भले-रहे त गुण कथा,
इक नाम भी तेरा जगाता भक्ति तुम में सर्वथा। हो दूरतर जंबीर पर यह बात जग अनुभवित है,
जो नाम भी उसका बनाता सरस रसना द्रवित है ।।११।। ज्यों विविध मणि गण प्रचुर कांचन रजत रत्नों से भरे,
भंडार को देता जनक सुत को विनय गुण से भरे । जिनदेव ! त्यों तव ध्यान भी देता अचल पद को खरा,
ध्यानकर्ता के लिए अक्षीण सुख से जो भरा ॥१२॥ ज्ञानादि गुण गौरव भरे तुम नाथ ! अनुपम सिन्धु हो,
अशरण जनों के नाथ! तुम ही बिना कारण बन्धु हो। ऐसे तुम्हें तज और की जो शरण लेना चित धरे,
- वह तीन जग का राज्य तज जड़ भूत्यता स्वीकृत करे ॥१३॥ हे नाथ ! वे परमाणु भी जिनसे बना तव गात है,
थे लोक में उतने, न थे वे अधिक यह जग ख्यात है। तेरे चरण की शरण पा यदि मनुज बनता सिद्ध है,
है कौन सा अचरज, निमित्ताधीन कार्य प्रसिद्ध है ॥१४॥ मुखचन्द्र नाथ ! अपूर्व तेरा सकल मंगल मोद का,
है कंद, वाणी-सुधाधारा का सुझरना लोक का। संतापहारी, स्वर्गमोक्ष प्रदानकारी, बोध का,
दाता उदित नित लख मुदित मन होत भविक चकोर का ॥१५॥ जो भूल से भी उच्चरित तव भद्रकारी नाम भी,
होता सुकृत का जनक स्वामिन् ! सिद्धि का सदाम भी।