Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 61
________________ संस्मरणों के माधार पर अभी दो दिन पूर्व हिमालय-बद्रीधाम-यात्रा की ने स्वयं हिमालय जैसे बीहड़ पर्वत की यात्रा प्रसंग में भी चौदहवीं जयन्ती के अवसर पर प्रतिवर्ष की भांति जब हम इस विधि का पूर्ण निर्वाह किया और आज भी सब हिमालय दिगम्बर मुनि पढ़ रहे थे-दिगम्बरत्व दिगम्बर मुनि इसी विधि को अपनाए हुए हैं। इतना ही और दिगम्बर मुनि के प्रति हमारी अन्तस्त्रया वचनद्वार फूट क्यों ? साधारण संहननधारी मुनि श्री विद्यानन्द जी ने पड़ी-धन्य हैं दिगम्बर साधु और उनकी चर्या । बर्फ के बीच रहते हुए शीत परीषह पर विजय पाई और अपनी ऐतिहासिक हिमालय-यात्रा के मध्य दि० मुनि हिमालय से नीचे उतरते समय जब रुद्रप्रयाग में उन्हें श्री विद्यानन्द जी महाराज ने दिगंबरचर्या को निभाया उष्ण की बाधा हुई उनकी पेशाब में खून आने लगा तब और बद्रीनाथ की मान-संवधिनी-सभा में प्रवचन करते हुए भी उन्होंने पूर्ण धैर्य का परिचय दिया-न मुख से चीख निकाली और न ही किसी वैद्य से उपचार की कल्पना "लोग हमसे पूछते हैं आप नम्न क्यों रहते हैं ? की। पर, आज कंसी विडम्बना है कि लोग उत्तम संहनन संकटों को निमंत्रण क्यों देते हैं ? आदि । हम उन्हें क्या चारो दि० महावीर में उक्त बातों को कल्पना कर रहे हैं, उत्तर दें? हम तो वही कह देते हैं, जो हमारे पूर्वाचार्यों ने नवधाभक्ति बिना उनके आहार लेने और कष्ट मे उनकी चीख निकलने तथा खरक वैद्य से उनके इलाज की पुष्टि 'अदुःखभावितं शान भीयते दुःख सन्निधौ। कर रहे हैं और इस सब मे दि० मुनिश्री के समर्थन का नाम तस्माद्यपावलं दुखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ॥' ले रहे हैं। उन्होंने कहा-दुख-सुख की महिमा क्या कहें ? ये दिगम्बर वेष, दि०चर्या और दिगम्बरत्व के भाव में तो कर्म-अनित व्याधियां हैं, कोई उन्हें उत्पन्न या नष्ट मुान पा' मुनि श्री के द्वारा, बद्रीनाथ मन्दिर के पीठासन से, और नही कर सकता। इन्हें तो जीव अपने सम्यग्ज्ञान से स्वयं अन्य सभाओ के माध्यम से दिगम्बरत्व की जैसी प्रभावना ही दूर कर सकता है। उन्होने दृष्टान्त भी दिया हुई उसका प्रमाण वहाँ के जनेतर संप्रदाय के शब्दों में भी 'पुरागर्भादिन्द्रो मुकुलितकरः किंकर इव, जाना जा सकता है । जैसेस्वयं लस्टासष्टेः पतिरथ निधीनां निजसुतः। 'भारत पर जैन तीर्षकरों व भमण दिगम्बर मुनियों अधित्वा षण्मासान् स किल पुनरप्याट् जगती की सदा कृपा रही है- सदा ही सन्मार्ग का उपदेश देते महो! केनाप्यास्मिन् बिलसितमलंय हतविधेः॥ रहह, आदि। -श्री सत्यनारायण शास्त्री, बावलकर -आत्मानुशासन ॥' हम निवेदन करें कि हमने वर्षों मुनिधी के पादमूल में हा हा पपा मुनिश्रा क पाद -अहो, जिन्हें पूर्वसमय मे गर्भकाल से ही इन्द्र सीखा ह। दिगम्बरत्व भार उक्त पर्या आदि के प्रति मृत्यवत् अजलिबद्ध होकर सेवा करता था, स्वय जो कर्म उनके समर्पण भाव को हमने उन पुरुषो से कही अधिक भूमि के स्रष्टा थे, जिनका पुत्र भरत चक्रवर्ती षटखंडाधि- जाना ह, जा यदा-कदा उनक पास माते-जाते हो और उनकी पति पा-वह पुरु (बादि) देव तीर्थकर वृषभदेव षण्मासा मनोभावना को जानने का दावा करते हों या यद्वा-तता वधि क्षुधित होकर पृथ्वी पर विहार करते रहे। इस दुष्ट लिख उनको मोहर लगाते हो । ऐसे पुरुषो को सावधान कर्मगति का उल्लंघन कर पाना किसी के लिए भी दुष्कर होना चाहिए कि कहीं उनके कु-प्रयासो से जिनवाणी और है।"-पृष्ठ ५४-५५ दिगम्बर मुनि का अपवाद न हो जाय। स्मरण रहे दिगम्बर-सिडांत-प्रभावक साधु बड़े भाग्य से हाप माते हैं, उक्त श्लोक मुनिश्री को अत्यन्त प्रिय है और वे प्रायः फलतः-दिगम्बरत्व की पुष्टि में ही दिगम्बर का उपयोग पढ़ा करते हैं। उक्त श्लोक से स्पष्ट है कि दिगम्बर मुनि होना चाहिए। (तीर्थकर ऋषभदेव की भांति) विधि-विधान, नवधा भक्ति बादिके योग मिले बिना बाहार नहीं लेते। मुनिश्री ४-६-६४ -पचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली

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