Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 59
________________ दिगम्बर- परम्परा में स्त्री-मुक्ति-निषेध (क) “मोक्षहेतुर्ज्ञानादिपरमप्रकर्षः स्त्रीषु नास्ति।" स्त्रीणां मायाबाहुल्यमस्ति सवेल संयमत्वाभ्य न स्त्रीणा संयमः मोक्षहेतुः । बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहवत्वाच्च न स्त्रियो मोक्षहेतुसंयमवत्यः । नास्ति स्त्रीणा मोक्ष. उत्कृष्टध्यानविकलत्वात् ॥ " प्रमेयकमल मार्तण्ड २ / ३२-३३४ (ख) 'कर्मभूद्रव्यनारीणा नाच सहननत्रयम् । वस्त्रादानाच्चरि च तासा मुक्तिकचावृया ॥" -चा० सार २२६६ - कर्मभूमिगत द्रव्य स्त्रियों के प्रथम तीन सहनन नही होते । और वे सत्रस्त्र भी होती है ? अत. स्त्रियो को मुक्ति प्राप्ति की बात नहीं बनती। (ग) जवि दसणेण सुद्धा मुलायमेण चावि सत्ता । - घोर चरदि य चरिय इत्थिस्म ण गिज्जरा भणिया || -- प्र० स० । प्रक्षे० । (घ) 'बहुरि स्त्री को मोक्ष कहै सो जाकर सप्तम नरक गमन योग्य पाप न होय सकेँ, ताकर मोक्ष का कारण शुद्धभाव कैसे होय? जाते जाके भाव दृढ़ होय, बी ही उत्कृष्ट पाप वा धर्म उपजाय सक है। बहुरि स्त्री के निशंक एकान्तविषे ध्यान धरना और सर्व परिग्रहादि का त्याग करना संभव नाही ।' - मो० मा० प्रकाश पृ० २१४ नवधा भक्ति का विधान :-- (क) 'जो नत्रकोटि अर्थात् मन-वचन-काय, कृत-कारितअनुमोदना से शुद्ध हो, ब्यालीस दोषों से रहित हो, विधि से अर्थात् नवधाभक्ति, दाता के सात गुण सहित क्रिया से दिया गया हो, ऐसा भोजन साधु गृहण करे ।' मूलाचार गा० ५८२-४८३ (ख) 'बहुरि काहू का आहार देने का परिणाम न था, या वाका घर मे जाय याचना करी । तहा वार्क सकुचता भया वा न दिए लोकनिय होने का भय भया ताते वाको आहार दिया। सोवा का अतरग प्राणपोटात हिंसा का सद्भाव आया। 'बहुरि अपने कार्य के अथि याचनारूप वचन है सो पापरूप है। सो यहाँ अमत्य वचन भी भया । बहुरि वाकं देने की इच्छा न थी, याने याच्या, तब बाने अपनी इच्छा से दिया नाही सकुचिकार दिया। ताने अदत्त ग्रहण भी भया ।' -- मो० मा० प्र० पृ० २२८ केवली उपसर्ग निषेध: (क) जवण समज्जाद सुभिक्खदा चउदिसासु शिवराणा । पगमणाणमहिंसा भोयण उवसम्गपरिहीणा ॥' - केवली के दस अतियों मे उपसर्ग इन तीनो का न होन केवली को उपसर्ग नहीं होता। - ति० प० ४६६६ -- अदया, भोजन और भी सम्मिलित है (ख) "अर कहै, काहू ने तेजोलेश्या छोरी ताकरि वर्धयान स्वामी के पेचिस का रोग या सो केवली अतिशय न भया तो इन्द्रादि कर पूज्यपना कैसे शोभे ?" मो० मो० ० ० २२१ 00

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