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कारवां लुटता रहा, हम देखते खड़े रहे ?
पाठकों ने देखा-'अनुत्तर-योगी तीर्थकर महावीर' गत दिनों एक सस्था ने उपाधियों का वितरण किया। कृति का विज्ञापन । 'उपन्यास में शास्त्र और शास्त्र में हमने संस्था को पत्र लिखा। हमें खुशी हुई कि देश में एक उपन्यास ।' यह साधा गया एक ऐसा जहरीला तीर है, ऐसी संस्था का जन्म हुआ, जिसने बोई प्रतिष्ठा को जिससे एक साथ जिनवाणी को दूषित करने और गुरु की जीवित करके धर्म-धुरन्धर और ज्ञान-गरिमा को सार्थक प्रतिष्ठा लूटने जैसे दो निशाने साधे गए हैं। जहाँ इसस करने वाली कुछ उपाधियां देने का श्रीगणेश किया है। वीतरागी सिद्धान्तों को सरागी जामा पहिनाया गया है हमने जानना चाहा कि उन पदबियों के लिए कौन सी वहीं उपन्यास में श.स्त्र जैसी प्रामाणिकता लाने के लिए योग्यता और किस कोर्स की पूर्ति आवश्यक है ?-कृपया दिगम्बर मुनि द्वारा समर्थित बताया गया है । और ये सब लिखें । पर, काफी दिनों के बीतने पर भी उत्तर न मिला। किया गया है-नवीनता लाने, नाम पाने और न जाने बाद को मालूम हुआ कि वह लूट पी-यश के लिए, नाम किन-किन योजनाओं की आड़ मे। इसे कहते हैं-'एक के लिए और अर्थ के लिए सो, सबने अपना-अपना स्वार्थ तीर से दो शिकार करना' और ये सब किया जा रहा है साधा और कार्य आगे बढ़ गया। हमारे खड़े-खड़े देखते हुए और हम हैं कि कुछ कर नही ऐसे ही विपर्यास मेटने के लिए हमने भारतवर्षीय पा रहे-'कारवां लुटता रहा, हम देखते खड़े रहे।' कई दिगम्बर सस्थाओं को पत्र लिखे-कि कुछ करेंगे।
पर होना वा पत्र का उत्तर दर-किनार, यहां तक कि पत्र ऐसा क्यों ? इमलिए, कि लूट के समय सब अपना- की पहुंच भी हमें नही मिली। हमने सिर धुना कुछ आल अपना देखते हैं; आपाधापी मे दूसरों का ख्याल कोई नहीं हडिया सभायों की कार्य-व्यवस्था पर जहां
। सो आज लुट हो रही है-उपाधियों की, नाम कई पर कार्यकर्ता कोई नहीं-सब मौन, एक-दूसरे का की और धन की । जिसे जिधर से जो मिलता है वह उसी । मुह देखने वाले हैं। ऐसे मे फिर वही दुहराना पड़ाके संग्रह में मग्न रहता है उसी को लूट लेता है बिना 'कारवां लुटता रहा, हम देखते खड़े रहे। किसी की परवाह किए, मौन ।
-संपादक 'अनेकान्त' बीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज,
नई दिल्ली-२
'बहुगुणविज्जारिणलो प्रसृत्त भासी तहवि मुत्तव्यो।
अहं वरमरिणजुतो विहु विग्गयरो विसहरो लोए ।'
बहु-गुण और विद्या का स्थान (विद्वान्) यदि मागम के विरुद्ध कथन करने वाला हो तो उसे भी छोड़ देना चाहिए। जैसे उत्तम मणि के धारक सर्प को लोक में विघ्न. कारण जानकर छोड़ दिया जाता है।