Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 25
________________ ताकि सनद रहे और काम आये २३ देते हुए यही लिखना चाहता हूं कि अनुत्तरयोगी के से करना कोई अनुचित बात नही है। आशा है वे परम्परा प्रकाशन मे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जिन-जिनका भी विरुद्ध अंशों का परिष्कार अगले सस्करण मे अवश्य कर हाथ रहा हो उन सबको सार्वजनिक रूप से ऐसे कृत्यों के देगे। १५-२-८४ लिए क्षमा मागनी चाहिए। अनुत्तर योगी के बारे में जो १२. डा० प्रेमचन्द्र जैन, जयपुर कुछ लिखा गया है उसे पढकर ऐसा लगता है कि भ्रम अनुत्तरयोगी महावीर की समीक्षा पढ़ी। मै आपके फैलाने वाले तथ्य किस उद्देश्य स दिए जा रहे है और दि० विनारो मे पूर्णता सहमत ह । इस विषय पर दि० जैनियो द्वारा इस प्रकार लिखा जाना एक दम असहनीय है। समाज को किस दिशा में ले जाया जा रहा है ? क्या एक आपका लिखना प्रमाणपूष्ट निर्भीकता और स्पष्टता लिए दिन ऐसा आयगा कि दि. समाज का लोप हो जायेगा। हुए है । यह दि० विद्वानो के लिए मर्वथा विचारणीय है। ३१.१.८४११. डा. नन्दलाल जैन, रीवा १०. सम्पादक, सन्मति संदेश 'अनुत्तर योगी तीर्थंकर महावीर' नामक उपन्यास के -अनेकान्त में आपका लख विचारणीय प्रसग पढ़कर अन्तःपठन के आधार पर 'अनेकान्त' में जो बिन्दु उठाए है यह अनुभव हुआ क मिद्धान्त की सुरक्षा के लिए आप उन पर सारी दि० जैन समाज एव विद्वानों को ध्यान जैसे निर्भीक स्पष्टवक्ता विद्वान ही सक्षम हो सकत है। देता चहिए । यह कितना अच्छा होता कि प्रकाशन समिति अनुत्तर योगी के सिद्धान्त विरुद्ध प्रकरणो को जैन समाज ग्रन्थ को आद्यापान्त पढने के बाद प्रकाशित करती। इससे के समक्ष रखकर भविष्य में होने वाली अपार क्षति से आपने उत्तरवर्ती समय में इस उपन्यास के कारण दि. जैन धर्म, समाज को सचेत कर महान उपकार किया है। २-२-८४ मवीर और उनकी माताओ के प्रति घामक ११. डा० श्री राजमल जैन, नई दिल्ली सभवत. स्थिर न हो पाती। आप जैन सिद्धान्तो के प्रति परम्परागत तथ्यों के सरक्षण को किसी भी कवि या जितनी जागरुकता का परिचय दे रहे है वह श्लाघनीय है चरित्र लेखक ने दृष्टि से ओझल नही किया है यही आशा वस्तुत 'अनेकान्त' और वीर सेवा मन्दिर इस हेतु ही वीरेन्द्रकुमार जी तथा दि० जैन समिति से स्वाभाविक रूप स्थापित है। २७-२-८४ समाधान-हेतु : शंका क्या द्रव्य स्त्री के तीर्थकर प्रकृति का बंध और क्षायिक सप्तप्रतिनिरवशेषाय भयांत'-इसी को जनेन्द्र सिद्धान्त सम्यक्त्व हो सकता है, वैसे तो शास्त्रो में स्पष्ट निषेध है कोश भाग 6 के पृष्ठ २७८ पर उद्धृत किया है। इसमें किन्तु दो स्थल-विशेष मे शका है जो इस प्रकार है - जो अचार 'महावन मानुपी' का विशेषण दिया है मो १. हरिषेणकथा कोश कथा नं. १०८ श्लोक १२४-१२६, इमसे ये द्रव्य स्त्री विदित होती है। द्रव्य में पुरुप हो और अय सा रुक्मिणी नत्वा सर्वसत्वहित गुरु, भाव स स्त्री हो उसके तो भयिक सम्यक्त्व शास्त्रों मे सयमश्री समीपे च प्रवव्राज मनस्विनी।। बनाया है वह नी सगत है किन्तु ऐसी भाव स्त्री के उपचार बद्धवा तीर्थंकर गोत्र तप शुद्ध विधाय च । महावत कैसे होगा? उपचार महावत तो द्रव्य स्त्री के ही रुक्मिणी स्त्रीत्वमादाय जातो दिवि सुरो महान समव है । द्रव्य पुरूप के तो वास्तविक महावत ही होगा। देवश्च्युत्वा भुव प्राप्य तपः कृत्वायमुत्तर । भाव स्त्री के जब १४ गुणस्थान हो सकते है तो उसके निहत्याशेष कर्माणि मोक्षं यास्यति तीरजा. ॥' उपचार महावत तक ही बताना भी असगत प्रतीत होता २. गोम्मटसार जीवकांड गाथा-७०४ की सस्कृत व है। अत. 'असयतदेश सयतोपचार महावत मानुषीणां' पद कर्णाटकी टीका तथा टोडरमल जी कृत उसकी बच- का क्या समाधान है ? मानुषी (भावस्त्री) के छठा सातवाँ निका मे प० कैलाशचन्द्र जी के हिन्दी अनुवाद भाग २ पृ. गुणस्यान क्यो नही ? सर्वार्थसिद्धि अ०१ मत्र की टीका ९३१-६३२ (भा० ज्ञानपीठ) मे इस प्रकार लिखा है- तथा राजवार्तिक अध्याय सत्र ७ की टीका मे भी इस 'क्षायिक सम्यक्त्व तु असयतादि चतुर्गणस्थानमनुष्याणा विषय का विवेचन है किन्तु 'असयत देश संयतोपचार महाअसंयतदेश संयतोपचारम हावत मानुषीणा च कर्मभूमि- व्रत मानुषीणा पद' वहा भी नही है। वेदकसम्यग्दृष्टिनामेव केवलिश्रुतकेवलिद्वय श्रीपादोपान्ते उक्त विषय मे विद्वान् प्रकाश डालने की कपा करें। -श्री. रतनलाल कटारिया, केकड़ी

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