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१०, बर्ष ३७, कि०२
समाधान-यह कथन ऐसी शका ठीक नही है- क्या हेतु के बिना प्रवत की सिद्धि हो सकती है? घटादि सत् होकर भी समाप्त किए जाते हैं कि नहीं? वैसे हेतु के द्वारा अद्वैत की सिद्धि करने पर हेतु और ही अविद्या सत होवे तो भी हठायी जा सकती है, आप साध्य के सद्भाव मे द्वैत की सिद्धि का प्रसंग आता है और ऐसा भी नहीं कहना। घट, ग्राम, बगीचादि अविद्या से यदि हेतु के बिना अद्वैत की सिदि की जाती है तो वचननिर्मित है। अतः असत् हैं और इसी कारण से उन्हे भी मात्र से द्वत की सिद्धि भी क्यो नहीं होगी। हटा सकते है तो ऐसे तो अन्योन्याश्रय दोष आता है अतः अद्वैतवादियो का कहना है कि हेतु के द्वारा ब्रह्म की घटादिकों में अविद्या से निर्मितपना सिद्ध हो तो उनमे सिद्धि करने पर भी द्वैत की सिद्धि नहीं होगी क्योंकि हेतु असत्व सिद्ध हो और असत्व शिद्ध हो तो उनमे और साध्य में तादात्म्य सम्बन्ध है वे पृथक्-पृथक् नहीं हैं। अविद्या से निर्मितपना सिद्ध हो। "अभेद विद्या निर्मित है
ब्रह्माद्वैतवादियो का उक्त कथन ठीक नही है। हेतु अतः वह वास्तविक है" इस पक्ष में भी वही अन्योन्याश्रय
और साध्य में कथचिद् तादात्म्य मानना तो ठीक है किन्तु दोष आता है अर्थात् पहले विद्या परमार्थभूत है यह बात
सर्वथा तादात्म्य मानना ठीक नही है। सर्वथा तादात्म्य सिद्ध हो तब अभेद विद्या के द्वारा पंदा यह कथन सिद्ध हो
मानने पर उनमे साध्य-साधन भाव हो ही नही सकता है। और अभेद विद्यानिर्मित है यह कथन सिद्ध होने पर विद्या
इसी प्रकार आगम से भी ब्रह्म की सिद्धि करने पर आगम में परमार्थतः सिद्ध हो इस तरह अभेद विद्यानिर्मित है यह
को ब्रह्म से अभिन्न नही माना जा सकता है। यदि ब्रह्म बात सिद्ध नही होती है। अनादि अविद्या क नाश होने मे
साधक आगम ब्रह्म से अभिन्न है तो अभिन्न आगम से ब्रह्न जो अद्वैतवादियों ने प्रागभाव का दृष्टान्त दिया है सो गलत
की सिद्धि कैसे हो सकती है। अत: हेतु और ब्रह्म का द्वैत है क्योंकि वस्तु से भिन्न सर्वथा अनादि तुच्छभाव रूप इस
तथा आगम और ब्रह्म का द्वैत होने से अद्वैत की सिद्धि
सम्भव नही है। प्रागभाव की असिद्धि है तथा वादियो ने जो ऐसा कहा है
___ स्वयसवेदन से भी पुरुषादत की सिद्धि सम्भव नही कि "तत्त्वज्ञान का प्रागभाव ही अविद्या है सो केवल कथन
है स्वसवेदन से पुरुषाद्वैत की सिद्धि करने पर पूर्वोक्त मात्र है यदि अविद्या को प्रागभावरूप मानें तो उससे भेद
दूषण से मुक्ति नहीं मिल सकती है। ब्रह्म साध्य है और शान लक्षण कार्य की उत्पत्ति नहीं होगी क्योकि प्राग्भाव मे
स्वसवेदन साधक है। यहाँ साध्य-साधक के भेद से द्वैत की कार्य को उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं है। प्राग्भाव से
सिद्धि का प्रसग बना ही रहता है और साधन के बिना नाश हये बिना जैसे घटरूप कार्य नही होता वैसे ही
अद्वैत की सिद्धि करने पर द्वैत की सिद्धि भी उसी प्रकार अविद्यारूप प्राग्भाव का नाश हुये बिना तत्त्वज्ञान रूप काये क्यो नही होगी। कहने मात्र से अभीष्ट तत्व की सिद्धि भी उत्पन्न ही नही होता है।
हो जायगी। वृहदारण्यक वार्तिक में ब्रह्म के विषय मे कहा यदि एक ही ब्रह्म का जगत मे मूलभूत अस्तित्व हो
। गवा है कि यद्यपि एक सद्रूप ब्रह्म ही सत्य है किन्तु मोह
। 'और अनन्त जीवात्मा कल्पित भेद के कारण ही प्रतिभासित
के कारण आत्मा या ब्रह्म भी दी रूपों से प्रतीति होती है होते हैं तो परस्पर विरुद्ध सदाचार, दुराचार आदि आगम द्वैत का बाधक एवं अद्वैत का साधक है। क्रियाओं से होने वाला पुण्य-पाप का बन्ध और उनके फल
उक्त कथन भी तर्कसंगत नहीं है। यदि मोह के कारण सुख-दुःख आदि नही बन सकेंगे। जिस प्रकार एक शरीर
द्वैत की प्रतीति होती है तो मोह का सद्भाव वास्तविक है में सिर से पैर तक सुख और दुःख की अनुभूति अवश्यक
या अवास्तविक । यदि मोह अवास्तविक है तो वह दैत की होती है भले ही फोड़ा पैर में ही हुआ हो, या पेड़ा मुख में
प्रतीति का कारण कैसे हो सकता है और मोह के वास्तविक ही खाया गया हो उसी तरह समस्त प्राणियों में यदि मूल- होने पर दैत की सिद्धि अनिवार्य है। एक ब्रह्म का ही सद्भाव है तो अखण्डभाव से सबको एक इस प्रकार ब्रह्म की सिद्धि में उभयतः दूषण पाता है। जैसी सुख-दुःख की अनुभूति होनी चाहिए थी। एक हेतु और आगम से ब्रह्म की सिद्धि करने पर वैत की मिति अनिर्वचनीय अविद्या या माया का सहारा लेकर इन जलते होती है। और वचनमात्र से की सिद्धि मानने पर हुए प्रश्नों को नहीं सुलझाया जा सकता।"
वैत की सिडिभी बचनमात्र होने से कौन-सी साधा है।"