Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 55
________________ विष-मिमित लाडू सब में निमित्त बना (?) ऐसे ही लोगों में से एक के द्वारा अन्य दिगम्बर मुनियों, त्यागियों, विद्वानों और प्रबुद्ध किया गया 'अयाचित अनधिकृत बुद्धिदान का प्रयत्न' पाठकों के नवीन आए अभिमत भी इस अक में 'ताकि (देखें-तेरापंथ भारती १५ अप्रैल १९८४)। सनद रहे और काम आए' शीर्षक मे देखें। हम उन लोगों को क्या कहें जिनकी बुद्धि में प्राचीन उक्त प्रसंग पर हमने कई भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रो को पढ़ने वाले हम, हमारे गुरु, विद्वज्जन सभा सस्थाओ का ध्यान भी खीचा है और उनसे प्रार्थना की है आगमान्ध, माथापच्ची करने वाले और शऊर-हीन हों? कि वे इस विषय को पर-मुखापेक्षीपना छोड़कर भावीहां, इस बात से हम असहमत नही है कि 'इन्दौर की पीढी पर कुप्रभाव पड़ने के प्रसग मे विचार और करणीय समाज सूझ-बूझ से खाली नही', उसमे आज भी सरसठ करें। अन्यया-आयोजको ने इसे शास्त्र घोषित कर हुकुमचन्द जी की भांति धर्म-रक्षक विद्यमान हैं। फलतः दिया है और भावी-पीढी इसे पढ़कर महावीर के चरित्र व वहां से उक्त उपन्यास को आगम-वाह्य बनलान के साहस सिद्धान्तो मे श्वेताम्बरी-आम्था करेगी और दिगम्बरत्व पूर्ण सदेश भी हमे आए हैं। का घात अपने द्वारा ही होगा तथा "समय के अनुमार 'उक्त पुस्तक को पूज्य एलाचार्य जी ने देखा है धर्म के रूा को बदलने जैसे ना समझी के परिणाम धर्म के झा को न ऐसा कहना भी भ्रमपूर्ण है। यत श्री एलाचार्य जो हमारे आगामी पीढियो के पछतावे-रूप मे फलीभत होगे। श्रद्धास्पद परम दिगम्बर गुरु हैं वे दिगम्बरत्व के अनुरूप मन्त में :'सत्वेषु मैत्री' के भाव मे सम-सामाजिक व्यवस्था, एकत्व, मैत्री आदि को तो चाहेंगे पर दिगम्बर देव-शास्त्र-गुरुओ यद्यपि हमपे भाषा चातुर्य नहीं है फिर भी अपनी और सिद्धान्तो की बलि देकर नही। यह हो सकता है कि भाषा मे एक बान और स्पष्ट कर दें-कि हमे सचना उन्होने धर्म-चारार्थ लिखाने की इच्छा प्रकट की हो और मिली है किसी एक पक्ष ने इच्छा प्रकट की है कि वे कभी लेखनी से भी प्रभावित रहे हो। विद्यानन्द जी महाराज का दिया गया निर्णय प्रकाशको को मान्य होगा एव तदनुसार वे सशोधन की सोच सकते हैं हमने अभी पूज्य एलाचार्य जी की बह भेट-वार्ता भी पढ़ी है जो श्री दशरथ पोरेकर तथा उत्तम कांवले के साथ तथा बाध्य किए जा सकते हैं'-गोया वह पक्ष गलती, एहसास कर रहा है [हर्ष] । पर ऐसे पक्ष को अब भी स्पष्ट हुई है और मराठी दैनिक समाचार 'सकाल' के २५ मार्च सोचना चाहिए कि ग्रन्थ के अशो मे :८४ के रविवारीय अंक मे 'प्रश्न अजून सपलेला नाही' १. क्या मुनिश्री ने भ. महावीर के कानो मे सलाइयां शीर्षक में छपी है। इसमे विपरीत मनोवृत्ति वालो को लक्ष्य ठुकवाने का समर्थन किया। कर मुनि श्री ने कहा है-"कुछ काम न करके इसरों का २. महावीर मुनि को नवधा भक्ति के बिना आहार ग्रहण बल पूर्वक हड़पने की उनकी वृत्ति है। चीटियो के द्वारा २. महाद को क्या उन्होंने सराहा? बनाई गई बांबी में जैसे सांप घुस जाता है, वैसे ही धन्धे ३. क्या उन्होंने केवली अवस्था मे महावीर पर तेजोलेश्या लोग सर्वव करते रहते हैं।" .....श्वेताम्बरों को किसी जैसे उपमर्ग का समर्थन किया था। मन्दिर में मूर्ति की स्थापना के लिए स्थान देना धोखे में परमा .....स्वयं कृष्ण भी आ जावें तो वे श्वेताम्बरों ४. उन्होंने किमी स्त्री को अरहंत बनने को स्वीकारा? को नहीं समझा सकते।' आदि। यदि ये सब नही, तो क्यों उनके आदेश की प्रतीक्षा है ? को उक्त धारणा स्पष्ट नही करती कि सिद्धातो ये तो सिद्धान्त की बाते हैं । इनका निराकरण स्वतः ही पोल-मोल मे पूज्य श्री की अनुमति नहा ! प्रशसक कर देना चाहिए। जो सिद्धान्त के माधारण जानकार के प्रज्य मुनि श्री के अतस्तल की पहिचान-मुनि अपवाद से वश की भी बात है जब कि प्रबुद्ध भी इसके विरोध में विराम लें। उक्त पुस्तक के आगम-बाह्य होने के सबध मे सम्मति दे रहे

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