Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 39
________________ धन्यकुमारचरित में तोवरना - आदि के उल्लेख प्राप्त होते हैं। दसवीं शती ई. के कि किसप्रकार वह उसको खोज में भटका है और मार्ग में उपरान्त की भी खोज करने पर ऐसी अन्य अनेक रचनाओं उसने किन तीर्थों के दर्शन किए हैंके प्राप्त होने की पर्याप्त सम्भावना है, जिनमे तीयों के तववार्ता न जानामि किंजीवसि मृतोऽथवा । विषय में सामग्री प्राप्त हो सकती है। निर्जगम् गृहात्तेन समुद्विग्नो वियोगतः ॥ ऐसी एक रचना गुणभद्रकृत धन्यकुमारचरित है। वन्दितुगतवान्नाथ शान्ति-कुन्थुमरं तथा । संस्कृत पद्य में रचित इस ग्रन्थ के लेखक माथुर सघी हस्तिनाख्यपुर सार चकिचक्रपराजितम् ।। माणिक्यसेन के प्रशिष्य और नेमिसेन के शिष्य भदन्त ततोयोध्या-पुरी प्रापनन्तु सत्तीर्थ पंचकम् । गुणभद्र थे, जिन्होंने उसे चन्देल नरेश परमाद्दिन (चन्देल वाराणस्या समायातो नमस्कर्तु जिनद्वयम् ।। परमाल] के शासनकाल (११६५-१२०३ ई.) मे विलासपुर पुनतथान्तरान्नत्वा सप्राप्याह कुशत्थलम् । (उ० प्र० के झांसी जिले मे झांमी नगर से २५ कि. मी. मुनिसंघनत देव प्रणन्तु मुनिसुवृत ॥ उत्तर-पूर्व में स्थित पचार या पछार ग्राम के) जिनालय में शीलभद्रस्य या माता तामुद्दिश्य समागमम् ।। लम्बकचुक (लमेचू) वशी साहू शुभचन्द्र के पुत्र बल्हण की (धनकुमार का पिता कहता है कि मैंने तुझे रात दिन प्रेरणा से लिखा था। ग्रन्थ का रचनाकाल ११६५- देखा पर तू कही मिला नही)- जब मुझे तेरा हाल मालूम ११६६ ई. के बीच अनुमानित है। यह चरित्र धन्ना- नही हुआ कि तू जीवित है या मर गया तो मैं तेरे वियोग शालिभद्र के सुप्रसिद्ध कथानक का सर्वप्राचीन उपलब्ध से दुखी होकर घर से निकल पडा। मैं शान्ति, कंथ एव दिगम्बर संस्करण है। अरनाथ की वन्दना करने के लिए उस अतिशय श्रेष्ठ ___ इस त्ररित्र के ३ रे परिच्छेद के श्लो० ५६ में भगवान हस्तिनापुर गया जो किसी समय चक्रवर्ती-तीर्थकरत्रय के पुष्पदन्त की जन्मनगरी काकदी का उल्लेख इस प्रकार चक्ररत्न से सुशोभित रहा था। तदनन्तर आप उचित, हुआ है अभिनदन, सुमति णोर अनन्तवाथ इन पांच तीर्थंकरों की नित्योद्योगेन गच्छन् स गङ्गाकूल निवासिनीम् । वन्दना करने के लिए अयोध्यापुरी पहुचा, और फिर काकंदी नगरी प्राप ककन्देन विनिर्मिताम् ।। सुपार्श्व, एवं पार्श्व, इन दो तीर्थंकरो को नमस्कार करने -चतुर्थ चरण का पाठान्तर है 'धनयक्षेण निर्मितां पुष्प वाराणसी आया । फिर बीच के अन्य तीर्थों की (किन-किन दन्तजन्मकाते।' की ?) वन्दना करता हुआ मुनियो के ममूह से नमस्कृत -इस प्रकार (घर छोड कर भाग जाने के बाद) भगवान मनिसुव्र नाथ की वन्दना करने के लिए कुशलत्था निरन्तर चलता हुआ वह (धन्यकुमार) गङ्गा तट पर बमी (राजगृह) आया हूं। इसके सिवाय यहा मेरी बहिन, जो राजगह तथा ककन्दन राजा द्वारा बसाई गई काकन्दी नगरी मे तेरी बुआ और शालिभद्र की मा है, रहती है-उससे पहुंचा। आगे कथन है कि थके हुए धनकुमार ने काकन्दी मिलने के उदेश्य से भी यहा आ मिलने के उद्देश्य से भी यहा आया हूं। नगरी के उपवन में एक वृक्ष के नीचे विश्राम किया, सप्तम् परिच्छेद के श्लो०३२-३५ में वर्णन है कि सरोवर में स्नान किया, जल पिया और फल खाये मुनिदीक्षा लेने के उपरान्ततदनन्तर मार्ग की थकावट को दूर कर जब वह पुन. वन इति ध्यायन्नसौ साधु धगध्यान चतुर्विधम् । में विहार करने लगा तो उसने तीन ज्ञानरूपी नेत्रो से युक्त अन्येपा दर्शयन् धय॑ध्यानमागं गणाग्रणीः ।। एक मुनिराज को देखा उसने उन्हें सन्मुख खड़े होकर हाथ विजहार धग धीगे ग्रामखेटपुराकराम् । जोडकर नम्रीभूत सिर से प्रणाम करके भक्ति पूर्वक्र अपने वन्दमानो हि तीर्थानि तीर्थकर जिनेशिनाम् ।। भाइयों के द्वेष का कारण पूछा ॥२॥ विहरत्नवाप श्रावरती पुरी सुरैः प्रपूजिताम । षष्ठ परिच्छेद के श्लो० ८५-८८ में धन्यकुमार का वन्दितु मंभवनाथ सभवस्य विनाशनम् ॥ पिता वृद्ध पिता पुत्र से पुनः मिलाप होने पर उसे बताता है ( शेष पृष्ठ ६ पर)

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