Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 9
________________ वर्ष ३१, कि.१ अनेकान्त भांति चेतन मस्त होकर सो रहा है। वह ऐसी मूढ दशा की हो। जैन सिद्धान्तों में मात्मा और जिनेन्द्र का एक ही में तीनों काल मग्न रहता है, भ्रम-जाल में फंसा रहता है। रूप माना गया है, अतः वह शरीरी हो अथवा अशरीरी, उससे कभी उभर नहीं पाता जैन भक्त को दोनों ही पूज्य है। नाटक समयसार में इस "काया चित्रसारी मे करम परजंक भारी, परम्परा का पालन किया गया है। कवि बनारसीदास ने माया की सवारी सेज चादर कलपना । यदि एक ओर निष्कल ब्रह्म की प्राराधना की है, तो दूसरी शन कर चेतन अचेतनता नींद लिये, ओर सकल के चरणो मे भी श्रद्धा के पुष्प चढ़ाये हैं। मोह की मरोर यहै लोचन को ढंपना॥ निष्कल' का दूसरा नाम है सिद्ध । कर्मों के प्रावरण उद बल जोर यहै श्वास को शबद घोर, से मुक्त प्रात्मा को सिद्ध कहते है। 'नाटक समयसार' में विष सुषकारी जाकी दौर यहै सुपना।। शुद्ध प्रात्मा के प्रति गीतों की भरमार है। एक स्थान पर ऐसी मूढ़ दशा मे मगन रहै तिहुंकाल, कवि ने लिखा है कि शुद्धात्मा के अनुभव के अभ्यास से ही घावै भ्रमजाल में न पावै रूप अपना ॥" मोक्ष मिल सकता है, अन्यथा नही । उनका यह भी कथन नाटक समयसार में वीर रस के अनेक चित्र है. जिनमें है कि प्रात्मा के अनेक गुण-पर्यायों के विकल्प मे न पडकर से एक में मास्रव और ज्ञान का युद्ध दिखाया गया है। शुद्ध प्रात्मा को अनुभव का रस पीना चाहिए । एपने स्व. शुक्ष प्रात्मा का कर्मों के प्रागमन को प्रास्रव कहते है। वह बहुत बड़ा रूप में लीन होना और शुद्ध प्रात्मा का अनुभव करना ही श्रेयस्कर है। सिद्ध शुद्ध प्रात्मा के ही प्रतीक है। उनके योद्धा है, अभिमानी है। ससार मे स्थावर प्रौर जंगम के विशेषणो का उल्लेख करते हुए कवि ने उसकी जय-जयकार रूप में जितने भी जीव हैं, उनके बल को तोड़-फोड़कर की है। एक पद्य देखिएप्रास्रव ने अपने वश मे कर रखा है। उसने मंछों पर "अविनामी अविकार परम रस घाम है, ताव देकर रण-स्तम्भ गाड़ दिया है, अर्थात् उसने अपने समाधान सरवग सहज अभिराम है। को अप्रतिद्वन्द्वी प्रमाणित करने के लिए अन्य योद्धानों को सुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत है, चुनौती दी है । अचानक उस स्थान पर ज्ञान नाम का एक जगत शिरोमनि सिद्ध सदा जयवत है॥" सुभट, जो सवाये बल का था, प्रा गया। उसने प्रास्रव को पछाड़ दिया, उसका रण-थभ तोड दिया। ज्ञान के शौर्य एक दूसरे स्थान पर कवि ने शिवलोक में विराजमान को देखकर बनारसीदास नमस्कार करते हैं 'शिवरूप' की वन्दना की है। उनका कथन है कि जो जेते जगवासी जीव थावर जंगम रूप, अपने प्रात्मज्ञान की ज्योति से प्रकाशित है, सब पदार्थों मे ते ते निज वस करि राखे बल दोरि के। मुख्य है, निष्कलक है, सुख सागर मे विश्राम करता है, महा अभिमानी ऐसो प्रास्रव अगाध जोधा, संमार के सब जीव और अजीवों के घट-घट का जानने रोघि रन थभ ठाढो भयो म छ मोरि के ॥ वाला है और मोक्ष का निवासी है, उसे भव्य जीव सदैव पायो विहि थानक अचानक परम धाम, नमस्कार करते है। भक्त के वन्दनीय को शिवरूप तो ज्ञान नाम सुभट सवायो बल फोरि के। होना चाहिए ही, साथ ही तेजवान भी, किन्तु तेज भौतिक प्रास्रव पछार्यो रनथभ तोरि डार्यो ताहि, न होकर, दिव्य हो, वह तभी हो। सकता है, जबकि सासानिरखि बनारसी नमत कर जोरि के ॥" रिक कलंक निकल जावे। तभी उसे मनत सुख पौर केवल ज्ञान उपलब्ध हो सकता है। ऐसे भगवान् के भक्त नाटक समयसार में भक्ति-तत्त्व का भक्तिपरक मापदण्ड निश्चयरूप से ऊँचा है। वह पद्य निष्कल और सकल अर्थात् निर्गुण और सगुण की इस प्रकार है - उपासना का समन्व। जैन भक्ति की विशेषता है। कोई जो अपनी दुति प्रा विराजत, है परधान पदारथ नामी। जन कवि ऐसा नही, जिसने दोनो की एक साथ भक्ति न चेतन अक सदा निकलंक, महासुखसागर को विसरामी॥

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