Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ मध्ययुग का एक प्रयातमियाँ नाटक जैसे कोऊ पातुर बनाय वस्त्र ग्राभरन प्रावति प्रसारे निसि घाड़ो पट करि दुहं श्रोर दीबटि सवारि पट दूरि कीज सकल सभा के लोग देख दृष्टि धरिकै ॥ ज्ञानसागर मिध्यानि पंथि भेदि करि उमग्यो प्रगट रह्यो ति लोक भरिकै ऐसो उपदेश सुनि चाहिए जगत जीव सुद्धता संभारे जग जाल सों निसरि के ।। जीव एक नट है और वह वटवृक्ष के समान है । वट वृक्ष मे अनेक फल होते है, प्रत्येक फन मे बहुत से बीज तथा प्रत्येक बीज मे वटवृक्ष मौजूद रहता है। बीज मे वट और बट मे बीज की परम्परा चलती रहती है । उसकी अनंतता कम नही होती इसी प्रकार जीव रूपीनट की एक सत्ता मे धनन्त गुण, पर्यायें और कलाएं है। एक विलक्षण नट है. जैसे वटवृक्ष एक सा फल है भनेक फल-फल बहु बीज बीज-बीज वट है। बट माहि फल, फल माहि बीज तामै बट को जो विचार तो ताम्रपट है। तैसे एक सत्ता मैं, अनंत गुन परजाय परमं धनस्य साथै धत उ है । टट में अननकला, कला मै श्रनत रूप रूपमे अनंत सत्ता, ऐसो जीव नट है ॥ इस संसाररूपी रंगशाला मे यह चेतन जो विविध भौति के नृत्य करता है, वह वेतन की संगति से ही । तात्पर्य है कि अचेतन हो उसे संसार के श्रावागमन में भटकाता है। यदि श्रचेतन का साथ छूट जाय तो चेतन का नृत्य भी बन्द हो जाये। इसी को कवि ने लिखा हैबोलत विचारत बनविना छ भखको न भाजन पे भैखका धरत है । ऐसो प्रभु चेतन अचंतन को संगति सो उलट पलट नटवाजी सी करत है । जब चेतन वेतन की संगति छाड देता है, तो वह उस नाटक का केवल दर्शक भर रह जाता है, जो भ्रम पूर्ण, विशाल एवं महा भविवेकपूर्ण खाई मे धनादिकाल स दिखाया जा रहा है । यह पखाड़ा जीव के घट में ही बना है । वह एक प्रकार की नाटघशाला है। उसमे पुद्गल नृत्य करता है मोर वेष बदल-बदल कर कोतुक दिखाता है। चिमूरति जो मोह से भिन्न धौर जट से जुदा हो चुका है. इस नाटक का देखने वाला है, वेतन मोह घोर जड़ से पृथक् होकर शुद्ध हो जाता है. अतः वह सांसारिक कृत्यों को केवल देखता भर है, उनमें संलग्न नहीं होता । बनारसीदास का कथन है- या पट मे भ्रमरूप मनादि, विशाल महा अविवेक तामह और स्वरूप न दीसत, पुद्गल नृत्य करें प्रति भागे ॥ फेरत भेष दिखावत कौतुक, सौजि लिये करनादि पसारो । मोइसों भिन्न जुदो जड़ सौ चिन्मूरति नाटक देखन हारी ॥ कोई नट जब रंगमंच पर अभिनय करता है, तो उसकी अभिनयोपयुक्त वेशभूषा होती है। वह अपनी वास्तविकता भूलकर उसी को सच्ची मान बैठना है । नाटक की तन्मयता से उभरते ही उसे अपने वास्तविक रूप का ज्ञान होता है । ठीक यह ही हाल चेतन का है। वह घट में बने रंगमच पर अनेक विभावो को धारण करता है । विभाव का अर्थ है कृत्रिम भाव। जब सुदृष्टि खोलकर वह अपने पद को देखता है तो उसे अपनी वास्त विकता का ज्ञान हो जाता है। चेतनरूपी नट का यह कौतुक ज्यो नट एक घर बहु भेख, कला प्रगट बहु कौनुक देख पुल अपनी करतूत नट भिन्नलि त्यो घट मे नट चतन राव, विभाउ दसा घरि रूप विशे खोलि दृष्टि न प दु विचार दान | चेतन है वह वेतन के सब फंसा रहता है । प्रचेत-चेतन को या तो भटकाता है अथवा मोह की नीद में सुला देता, अपना रूप नहीं देखन देना है। नाटक समयसार में चेतन की सुपुप्तावस्था का एक चित्र प्रति किया गया है। वह काया की चित्रमारी में माया के द्वारा निर्मित सेज पर सो रहा है। उम सेज पर कलपना (तडपन) की चादर बिछी है। माह के भकारो से उसके नेत्र ढंप गये है । कर्मों का बलवान उदय ही दवास का शब्द है । विषय भोगो का मानन्व ही स्वप्न है । इस

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