Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 6
________________ मध्ययुग का एक प्रध्यातमिया नाटक टीका की विशेषता है कि उसका मूल अन्य के साथ पूर्ण में लिखा गया है। प्रारम्भ मोर पन्त के १०० पद्यों का भी तादात्म्य होना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि भात्मरूपाति टोका से कोई सम्बन्ध नहीं है। जिनका सम्बन्ध अमृतचन्द्र ने प्राचार्य कुन्दकुन्द की प्रतिमा में घुसकर ही है, वे भी नवीन हैं। उनमे 'कलश' का अभिप्राय तो अवश्य इस टीका का निर्माण किया हो। प्राचार्य अमृतचन्द्र लिखा गया है किन्तु विविध दृष्टांतों, उपमा और उस्प्रेक्षामों विद्वान थे पोर कवि भी, कवि प्रतिभा उनमें जन्मजात थी, से ऐसा रस उत्पन्न हुमा है, जिसके समक्ष कलश फीका किन्तु प्रारमख्याति टीका, टीका है, प्रतः उसे अपने मूल जंचता है। एक दृष्टान्त से यह बात स्पष्ट हो जायेगी। ग्रन्थ समयसार पाहड का सही प्रतिनिधित्व करना चाहिए अमृतचन्द्र ने एक कलश में लिखा हैथा, वह उसने किया है। शायद इसी कारण उसमें दार्श- नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यस्त्वं फल विषयसेवमस्य ना। निकता ही मुख्य है। उसमे कवि का भावसकुलता का ज्ञान वैभव विरागता बलात्सेवकोऽपि तदसोऽसेवकः ।। समन्वय नहीं हो सका। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने जिन अन्य इस पर लिखा गया नाटक समयसार का पद्य इस ग्रन्थों का निर्माण किया है. वे भी दार्शनिक ही है । 'तत्त्व प्रकार हैसार' और 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' उनकी मौलिक कृतियां है। जैसे निशिवासर कमल रहे पंकही में, विक्रम संवत् की १७वी शती में प. राजमल्ल ने पंकज कहावं न वाके लिंग पंक है। र' पर 'बालबाधिना नाम का टाका लिखा, जो जैसे मन्त्रवादी विषधर सो गहा गात, हिन्दी गद्य मे थी। ये ढूंढाहढ़ प्रदेश के वराटनगर के रहने मन्त्र की शकति बाके बिना विष डंक है। वाले थे। अत: उनकी मातृभाषा ढूंढारी हिन्दी है। हिन्दी जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूखे प्रग, गद्य के इतिहाम मे उनका गौरवपूर्ण स्थान है। पानी मे कनक जैसे काई से अटक है। प. राजमल्ल की विद्वत्ता को ख्याति चतुर्दिक तसे ज्ञानवान नाना भाति करतूत ठान, व्याप्त थी। वे मस्कृत और प्राकृत के भी मर्मज्ञ विद्वान किरिया ते भिन्न माने मोते निकलक है।" थे। उनका व्यक्तित्व भी प्राकर्षक और समुन्न। था। स्पष्ट ही है कि उपर्युक्त शब्दो के चयन, पक्तियो के विद्वत्ता के समन्वय ने उसे और भी निखार दिया था। गठन, प्रसाद गुण और दृष्टान्तालकर की सहायता से "ज्ञानकिन्त. अर्धकथानक मे लिखा है कि इस टीका को पढकर वानमान कार्यों को करता aur भी उनसे पथक रहता बनारसीदास को 'मात्मा' के विषय मे भ्रम हुमा था। है", यह दार्शनिक सिद्धान्त सजीव हो उठा है। सच तो इसका अर्थ यह हुमा कि पं० राजमल्ल जी 'समयसार' का यह है कि समयसार और उसकी टीकायें दर्शन से सम्बसही प्रथं नही समझ सके। सच तो यह है कि समयसार धित है. जबकि बनारसीदास का नाटक समयसार साहित्य एक ऐमा प्रस्थ है जिसका मूल समझ लेना मावश्यक है। का ग्रन्थ है। उसमें कवि की भावुकता प्रमुख है, जबकि बिना उसके पाठक उलझ जाता है। हो सकता है, प. समयसार मे दार्शनिक का पाण्डित्य । दर्शन के रूखे गजमल्ल भी कही मूल में ही भूल कर गये हो। मिद्धान्तों का भावोन्मेष वह ही कर सकता है जिसने उन्ह बनारसीदाम के नाटक समयसार पर उपर्युक नीनो पचाकर प्रात्मसात कर लिया हो। कवि बनारसीदास ने माचार्यों का प्रभाव है। अपनी प्राध्यात्मिक गोष्ठी में समयसार का भली भाति नाटक समयसार और उसकी मौलिकता अध्ययन, पारायण प्रोर मनन किया था। इसमें उन्होन वर्षों __'नाटक समयसार' को प्रमृतचन्द्र के सस्कृत कलशो खपा दिये थे । बीच मे गलन प्रथं समझने के कारण उन्हे का अनुवाद नही कहा जा सकता, उसमें पर्याप्त मौलिकता कुछ भ्रम हो गया था, परिणामवशात् वे और उनके चार भी है । अमृतचन्द्र की प्रात्मख्याति टीका मे केवल २७७ साथी एक बन्द कोठरी में नग्न होकर मुनि बनन का कलशे हैं, जबकि नाटक समयसार मे ७२७ पद्य है । अत अभ्यास करते थे। बाद मे पाण्डे रूपचन्द्रसे, जिनकी समूची का १४वो 'गुणस्थान अधिकार' तो बिल्कुल स्वतन्त्र रूप शिक्षा बनारस में हुई थी, गोम्मटसार सुनकर 3.हे

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