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जैन संस्कृति प्रेमचन्द जैन एम. ए.
भारत की अनेकविध संस्कृतियों में जैन संस्कृति एक रखता है, इस कारण वह श्रमण कहलाता है। प्रधान एवं गौरव पूर्ण संस्कृति है। समता प्रधान होने के श्रमण वह है जो पुरस्कार के पुष्पों को पाकर प्रसन्न कारण यह सस्कृति श्रमण संस्कृति कहलाती है।
नहीं होता अपितु सदा मान और अपमान में सम जिसके मन में समता की सुर-सरिता प्रवाहित होतो रहता है। है वह न किसी पर द्वेष करता है और न किसी पर राग पागम साहित्य में अनेक स्थलो पर समय के साथ ही करता है अपितु अपनी मन. स्थिति को सदा सम समता का सम्बन्ध जोड़कर यह बताया गया है कि समता
ही जैन संस्कृति (श्रमण संस्कृति) का प्राण है'। ऋण पा गई। जिसका जो ऋण मुनिराज पर हो, वह
जैन संस्कृति की साधना समता की साधना है। इसमे से यथेच्छ ले लो मैं यही निवेदन करने आई है। समता, समभाव, समदृष्टि एव साम्यभाव ये सभी जैन विष्णुदत्त वे देखा-एक रूपवती नारी पारिजात के पुरुषो संस्कृति के मूल तत्व है । जैन परम्परा मे सामायिक की के पाभरण पहिने अपनी दीप्ति से प्रभा बरसाती मनि- साधना को मुख्य स्थान दिया गया है। श्रमण हो श्रावक राज के चरणो मे नतमस्तक हो रही है। उसके पैर घरती हो, श्रमणी हो या श्राविका हो, सभी के लिए सामायिक पर नहीं टिक रहे, उसके पलक नहीं गिरते, उसकी छाया की साधना आवश्यक मानी गई है। षडावश्यक में भी नहीं पड़ रही।
सामायिक की साधना को प्रथम स्थान दिया गया है। रूप की देवी उठी और देखते-देखते अन्तर्धान हो समता के अनेक रूप है। प्राचार को समता अहिसा गई।
विचारो की समता अनेकान्त है। समाज की समता अपविष्णुदत्त विस्मयाभिभूत सा खड़ा देखता रहा। रिग्रह है. और भापा की समता स्याद्वाद है। जैन उसके कानो में एक ही वाक्य गुज रहा था-जैन धर्म का
संस्कृति का सम्पूर्ण प्राचार विचार समता पर प्राधारित
संस्कृति का सम्पूण पाच मूल्य चुका सके, ऐसी शक्ति किसमे है।।
(माधृत) है। जिस प्राचार और विचार में समता का अकस्मात् ही वह गुनगुना उठा। निश्चय ही किसी प्रभाव है वह प्राचार विचार जैन संस्कृति को कभी में नहीं है। इस अमूल्य धन का मोल क्या ?
मान्य नही रहा। ___ सत्य का प्रकाश धीरे-धीरे उसके अन्तर मे भर गया।
समता किसी भौतिक तत्व का नाम नही है। मानव वह तब जागा जब उसने अपने को मुनिराज के चरणो मे
__ मन की कोमल वृत्ति ही समता तथा क्रूर वृति ही विषमता पाया। वही देवी जहाँ प्रणिपात कर रही थी। वह कह १. नत्थि य सि कोई वेसो पिभो य सम्वेसु चेव जीयेसु । रहा-भगवन् क्षमा करो। इस अमूल्य धन को प्राप एएण होई समणो ऐमो अन्नोऽवि पज्जावो ।। मुझे भी दे दे । मुझे भी अपना जैसा बना लें। मुझे भी
दशवकालिक नियुक्ति गा. १५५ इस अनन्त सत्य का वरदान दे दें।
२. वो सभ्मणो जई सुमणो भावेण प जइ न होइ पावमणो। जनभेदिनी जयघोषो से माकाश के पर्दे फाड नबी समणे प जणो य जणे समो य माणावमाणेसु ॥ वही १५६ थी।
३. न वि मुण्डिएण समणो न प्रोकारेण बम्भणो ।
न मुणी रयणवासेण, कुसचीरेण न तावसो। मुनिराज तब भी खडे थे निलेप, निस्पृह, अचल,
समणाए समणो होई बम्मचेरेण बभ्मणो। मौन।
नाणेण य मुणी होई, तवेणं होई तावसो ।।