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बन बर्शन को सहन उद्भति : अनेकान्त
से विचार करते हए पाठवीं शताब्दी ईसा पूर्व के भारतीय इसी महंकार को तोड़ा है। उन्होंने कहा, वस्त उतनी ही प्राचार्य यास्क ने वस्तु की इस अनन्त धर्मिता को अपने नहीं है जितनी तुम्हें अपने दृष्टिकोण से दिखाई दे रही उग से अनुभव किया था-स्थूण (खम्भा) शब्द की है। वह इतनी विराट् है कि उसे अनन्त दष्टिकोणों से व्यत्पत्ति स्था (खडा होना) घातु से मानी जाती है । यदि देखा जा सकता है। अनेक विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म खम्भे को खड़ा होने के कारण स्थूणा कहा जा जाता है उसमें युगपत् विद्यमान है। तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी जो उसे गड्ढे में फंसे होने के कारण दरशया (गड्ढे में मालूम पड़ता है उसे निर्मित करने वाला धर्म भी वस्तु में घसा हा) और बल्लियो को सँभालने के कारण सज्जनी है। तुम ईमानदारी से-थोड़ा विरोधी दष्टिकोण से (बल्लियों को सँभालने वाला) भी कहा जाना चाहिए'। देखो तो सही। तुम्हें वह दिखाई देगा । एकान्त दष्टि के
क्या हम वस्तु के एक धर्म को भी ठीक से देख पाते विपरीत यह अनेकान्त दृष्टि है। यही अनेकान्तवाद है। हैं ? मैं समझता हं, नहीं देख पाते । उदाहरण के लिए यह विचार या दर्शन है। एक ओर वस्तु के अनेक गण अध्यापक को लें। यह नाम व्यक्ति के एक धर्म पर प्राधा- बदलते पयोय और अनन्त धर्मिता का और दूसरी मोर रित है। हमने उसके अन्य सभी धर्मों को नकार दिया। मनुष्य-दृष्टि की सीमानो का दोष होते ही यह सहज दी सौदा खरीदते समय वह खरीदार है, पूत्र को चाकलेट उद्भूत हो उठा। विचार मे सहिष्णता आई वो भाषा में खिलाते समय पिता है। हमने इस सबकी ओर ध्यान नही उसे पाना ही था। विचार मे जो अनेकाता है वही वाणी दिया। तहाँ तक कि कक्षा पढ़ाने से सफलतापूर्वक बचते में स्याद्वाद है। समय भी उसे अध्यापक कहा । लेकिन उसके इस एक स्यात् शब्द शायद के अर्थ मे नही है। स्यात का धर्म अध्यापन के भी तो अनेक स्तर है-कभी उसने बहुत अर्थ शायद हो तब तो वस्तु को स्वरूप-कथन मे सनितेजस्वी अध्यापन किया होगा, कभी बहुत शिथिल और श्चितता नही रही। शायद ऐसा है, शायद वैसा है यह इन दोनों के मध्य अध्यापन के सैकड़ो कोटि क्रम है। इन तो बगले का झांकना हुआ। पाली और प्राकृत में स्यात सब पर हमारी दृष्टि कहा जा पाती है।
शब्द का ध्वनि-विकास से प्राप्ति रूह "सिया' वस्तु के सुनि___इस प्रकार वस्तु के अनेक गुण है । वह निरन्तर परि- श्चित भेदों के साथ प्रयोग में आया है। किसी वस्तु के वर्तनशील है और उसके अनन्त धर्म है । क्या हम वस्तु को धर्म कथन के समय स्यात् शब्द का प्रयोग यह मूचित उसकी सम्पूर्णता मे देख सकते है, जान सकते ? सम्भव ही करता है कि यह धर्म निश्चित ही ऐसा है, लेकिन, अन्य नहीं है।
सापेक्षतामों सुनिश्चित रूप से सम्बन्धित वस्तु के अन्य जितना भी हम देखें और जान पाते है वर्णन उससे धर्म भी है। इन धर्मों को कहा नहीं जा रहा है, क्योकि भी कम कर पाते है । हमारी भाषा दृष्टि की तुलना मे शब्द सभी धर्मों को युगपत् संकेतित नही कर सकते ।
और भी असर्थता, अपर्याप्त, अपूर्व और सयथार्थ है। यानी स्यात् शब्द केवल इस बात का सूचक है कि कहने नाना धर्मात्मक वस्तु की विराट् सत्ता के समक्ष हमारी के बाद भी बहुत कुछ अनकहा रह गया है इस प्रकार वह दष्टि और दृष्टि को सूचित करने वाली भाषा बहुत बोनी सम्भावना, प्रनिश्चय, भ्रम प्रादि का द्योतक नहीं सुनिहै वह एक ट्टी नाव के सहारे समुद्र के किनारे खड़े होने श्चितता और सत्य का प्रतीक है। वह अनेकान्त चिन्तन की स्थिति है। लेकिन हम अपने अहंकार में अपनी इस का वाहक है और हमें धोखे से बचाता है। स्थिति को समझते ही नहीं है। महावीर ने वस्तु की महावीर ने अनेकान्त को यदि चिन्तन और वाणी विराटता और हमारे सामर्थ्य की सीमा स्पष्ट करके हमारे का ही विषय बनाया होता तो हमें उससे विशेष लाभ १. निरुक्त १-११ ।
नहीं था। अनेकान्तवाद और उसका भाषिक प्रतिनिधि २. भाषा पदार्थों को अपूर्ण और अयथार्थ रूप में लक्षित स्याद्वाद अनेक वर्षों में एक वाद और बन जाता है। करती है।
उसकी किताबी महत्ता ही होती है, लेकिन महावीर