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५०, वर्ष २७, कि०२
अनेकान्त
कराने की बात सोवना है, यही कारण है कि इन पदों को धन की तृषा प्रीति बनिता की, पढ़कर सीवा हृदय पर प्रभाव पड़ता है। जो बात सच्चे
भूलि रह्यो वृष ते मुख गोयो। मन से कहीं जाती है उसका प्रभाव दूसरों के मन पर सुख के हेत विषय-रस सेये, पड़ना अवश्यम्भावी है।
घिरत के कारन सलिल विलोयो। जैन कवियो मे प. रूपचन्द, बनारसीदास, जगतराम माति रह्यो प्रसाद मद मदिरा, चानतराम, भूधरदाय, बुधजन एव दौलतराम आदि ऐसे अरु कन्दर्प सर्प विष भोयो । कवि है जिन्होंने जो कुछ भी लिखा उसका सम्बन्ध किसी रूप चन्द चेत्यो न चितायो, न किसी प्रकार से प्रात्मा से जुड़ता चला गया है । प्रात्मा मोह नींद निश्चल है सोयो। के ऊपर लिखे गए इन कवियों के पद पाठको तथा उक्त पद में कविवर रूपचन्द भी आत्मा को सासाधोतामो को आध्यात्मिकता का सन्देश देते हुए प्रतीत रिक विषय भोगो से मन को हटाने का सन्देश देते हैंहोते हैं।
"माति रह्यो प्रसाद मद-मदिरा" मे अनुप्रास का विन्यास कविवर भट्टारक कुमुदचन्द्र ने राजस्थानी हिन्दी में
दृष्टव्य है। इनके प्रत्येक पद इसी प्रकार मन को सम्बोअपने अधिकाश पद लिखे है। इन्होंने यद्यपि प्राध्यात्मिक धित करके कर्तव्य का ज्ञान कराया गया है। पद कम ही लिखे है फिर भी इनके जो भी पद प्रात्मा या
___वनारसीदास प्रतिभा सम्पन्न एवं दृढ़ निश्चय वाले सेतना को सम्बोधित कर लिखे गये है, वे बेजोड़ है। कवि थे। इनकी रचनाओं की साहित्यिकता अनुपम है। चेतन को समझाते हुए कविवर कहते है कि:
प्रत्येक पद से अध्यात्म रस टपक कर श्रोता की प्रांखो चेतन चेतत कि बावरे ।
मे अश्रु कण बन जाता है। विषय विषे लपटाय रह्यो कहा,
कविवर अपने मन की दुविधा को प्रगट करते हए दिन-दिन छीजत जात प्रापरे ।
कहते हैंतन, धन, यौवन चपल रुपन को,
दुविधा कब जैहैं या मन को। योग मिल्यो जेस्यो नदी नाउ रे।
कब निज नाथ निरंजन सुमिरी, तज सेवा जन-जन को। काहे रे मूह न समझत अजहूँ,
कब रुचि सौंपीवं दुग चातक, बूद प्रखय पद धन की। कुमुद चन्द्र प्रभु पद यश गाउ रे ॥२॥
कब सुभ ध्यान धरौं समता गहि, करूं न ममता तन की। निश्चित रूप से कवि कुमुदचन्द्र प्रात्मा की गढ़ता से
कब घट अन्तर रहै निरन्तर, दिढ़ता सुगुर वचन की। विकल हैं तथा तन, धन, यौवन को चंचल कर इनका गर्व न करने का सन्देश देना चाहते है ।
कब सुख लहौं भेद परमारय, मिट धारना धन की। पण्डित रूपचन्द सत्रहवीं शताब्दी मे हुए थे। उनकी
कब घर छोडि होई एकाकी, लिए लालसा बन की।
ऐसी दसा होय कब मेरी, हाँ बलि बलि वा इनकी। अधिकांश रचनाएँ आध्यात्मिक रस में डूबी हुई है।
वास्तव मे कवि को निर्दोष, निविकार बनने की बड़ी आत्मा को सम्बोधित करते हुए कवि ने बहुत से पद लिखे है। उनके एक पद का नमूना देखिए:
उत्सुकता है। वह ऐसे संयोग की प्रतीक्षा मे है, जब उसकी मानप्त जनमु क्या ते सोयो।
माधना पूरी होगी। करम-करम करि प्राइ मिल्यो हो,
जगजीवन कवि आगरा निवासी थे । वे कवि बनारसी निद्य करम करिकरि सु विगोयो।
दाम के बड़े प्रशसक थे। इनके छोटे-छोटे पदों में भावभाग विसेस सुधा रस पायो,
गम्भीयं है । इन्हे भी संसार की प्रसारता पर रोष हैसो त चरननि को मल धोयो।
जगत सब वीसत धन की छाया। चितामनि क्यो बाइस को,
पुत्र, कलत्र, मित्र, तन, संपति, कुंजर भरि-भरि ईन्धन ढोयो।
उदय पुद्गल जुरि प्राया,