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दर्शन और लोकजीवन
पुषराज जैन
दर्शन के दो पहल रहे है, 'जीवन के प्रति प्रतिबद्ध- और रचने की शक्ति और इच्छा का परिणाम है। अपने दृष्टि से समाज संगठन और व्यवहार के आदर्शों के बारे जीवन, अपने आसपास के समाज, अपनी और प्रकृति के में सोचना तथा किसी एक जीवन और समाज से परे बीज के सौन्दर्यानुभव को लेकर जिज्ञासा और कल्पना शाश्वत मूल्यों और सत्य के बारे में सोचना । जिन दर्शनों तिमा
| मिश्रित उड़ाने और तर्क दृष्टि लगातार नई नई दार्शनिक में इन दोनों पहलुओं मे तालमेल रहा है वे लोक-अभिमुख परिकल्पनायें, स्वप्न तथा प्रादर्श रचते है। जीबन की रहे हैं और फैले बढे है। जिनमे ऐसा तालमेल अधिक वास्तविकताबानो परिकल्पनायें जब प्रधरी सिद्ध दिन बैठ नहीं सका वे अवरुद्ध हो गये सड़ गये।
होने लगती है तो सृजनशील मस्तिष्क फिर से कोशिश दर्शन सिर्फ बोध नहीं होता। वह मानव की खोजने
करता है। इतिहास के माध्यम से ये स्वप्न और पादश में कश्यप गोत्र के खन्डेलवाल महाजनो का उल्लेख है। हमारे शरीर मे घुलते जाते है, हमारी प्रवृत्ति का अग यह चौरासी गोत्रो से भिन्न है। राजपूतों में ब्राह्मणीय
बनते जाते है। प्रकृति और समाज के द्वारा फेकी गयी गोत्रों की अपेक्षा 'कल' टालना महत्व-पर्ण मानते है। चुनौतियो और कठिनाइयों को इसी के बल पर हम कई जातियों का ब्राह्मणीय गोत्र संपूर्ण जाति में एक ही है स्वीकार करते है, हल करते है। एक जीवित समाज जसे पोझा लुहार व कलवार मभो कश्यप गोत्रीय है"। अपनी भीतरी शक्ति को पूरी सचेतता के साथ बढाता है, वर्तमान में गोलापूर्वो मे प्रजापति आदि नामवाली गोत्र पुनर्गठित करता है। यह सचेतता उस लोच में निहित व्यवस्था पूर्ण रूप से विस्मृत हो चुकी है।
होता है जो समाज आदर्शो और वास्तविकतापो को एक ___गोल्हण साहु अादि पूर्वजों के चंदेरी मे रहने से ही दूसरे से कहने नही देती बल्कि दोनो को एक दूसरे के चंदोरिया वैक हुआ होगा।
अनुकूल बनाती चलती है । गोल्हन साह के उल्लेख के बाद कवि विस्तार-भय में दर्शन की शास्त्रीय व्याख्या मे उसी हद तक महत्वबीच का वर्णन छोड देता है। फिर भीषम माह के वारे पूर्ण होती हैं जिस हद तक वे सामान्यजन को बेहतर में लिखा है जो ओरछा स्टेट में भेलमी ग्राम में रहते थे। जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है, बल देती है । कोई इनने १६५१ सं० में गजरथ चलवाकर सिवई पद पाया। भी अच्छा दशन असंख्य किस्से कहानियो के रूप में कालातर मे उनके वन खटोला ग्राम में बसे मलहरा के फैलता है। लोकमत इन कहानियो और इनके पात्रो को पास जा बसे जहा भीषम साह के छ. पीडियो बाद हए अपनी रुचि, अच्छाई बुराई को अपनी समझ और भावुनवलसाह ने सं० १८२५ मे वर्षमान पुराण की कता के द्वारा नये अर्थ देता है। साथ ही वह इनसे अपने रचना की।
को बनाता और बदलता भी है। इन कहानियो, मिथों से जाति सबंधी विशिष्ट परिचय के लिये अनेकॉत खुद संवारने और अपनी अनुभूति, कोमलता तथा कल्पनाजून १९६६ में 'जैन समाज की कुछ उपजातियाँ शीलता से इन्हे संवारने का क्रम एक साथ और लगातार दृष्टव्य है।
चलता है। यही सास्कृतिक जिदगी है। ४० K.C. Jain, p. 386.
भारतीय दर्शन के विभिन्न मतों में अक्सर एक सार४१. Hutton, p. 55.
भूत एकता दिखाई देती है। जीवन जीने के स्तर पर