Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 108
________________ वर्षमानपुराण के सोलहवें अधिकार पर विचार है । अग्गरवार या अग्रवाल सर्वाधिक विख्यात वैश्य जाति बुदेलखण्ड और मालवा में बसती है, नरसिंहपुर जिले में है। इनकी ही सख्या सर्वाधिक है। हरियाणा के हिसार अधिक संख्या में है। लगभग सभी वैष्णव है, जैन भी हैं, जिले में प्राग्रोतक या आग्रोहा स्थानसे इनका विकास हुआ। जो धीरे धीरे वैष्णवो के प्रभाव में आते जा रहे हैं। इनमे साढे सत्रह गोत्र है। दसा-बीसा भेद है ये अधिकतर इनमे बीसा, दसा और पचा भेद है । असटी या असाटी वैष्णव ही है, फिर भी जैनो की मख्या कम नही है। बुंदेलखण्ड के वैष्णव है, फिर भी प्राचार-व्यवहार में बारहवी शताब्दी से इनके उल्लेख मिलते है । कठनेरे जैनो से प्रभावित है। गणेशप्रसाद जी वर्णी इसी जाति प्रसिद्ध नहीं है, कठनेर नामक किसी स्थान से निकले जान में उत्पन्न हुय थे। पड़ते है। पल्लीवाल राजस्थान मे जोधपुर राज्य में स्थित वघेरवार राजस्थान मे केकड़ी से १०-११ मील दूर पल्ली नामक प्राचीन नगर के अधिवासी थे। ये जैन और बघेरा नामक स्थान के पूर्व निवासी थे । वर्तमान में वैष्णव मतावलबी है आगरा, जौनपुर आदि स्थानों में बहुइनका निवास विशेष रूप से राजस्थान, महाराष्ट्र और तेरे पल्लीवालों का वास है। पल्ली नगर पर पहले मालवा मे है । पडित आशाधर जी व चित्तौड़ कीर्ति स्तभ पल्लीवाल ब्राह्मणो का प्रभुत्व था, जिन्हें राठौरों ने सन के निर्माणक शाह जीजा इसी जाति के थे । इनके बारहवी ११५६ ई. मे परास्त किया। इसके बाद पल्लीवाल शताब्दी से लेख आदि मिलते है । पद्मावती पुरवार जाति ब्राह्मण यतस्ततः जाकर बस गये"। पोरवार मूलत: का निकास पद्मावती नामक नगर से हुआ है जो प्राजकल राजस्थान और गुजरात के वासी है। इनमें जैन और ग्वालियर मे पद्मपवाया नामक ग्राम के रूप में अवस्थित वैष्णव दोनो ही है । इनमे दसा-बीसा भेद है । ऐसा प्रतीत है । पद्मावती पुरवार एक ब्राह्मण जाति भी है। होता है कि श्रीमाल और पोरवाल निकटवासी थे। कहा गृहपति जाति वर्तमान मे गहोई कहलाती है वर्तमान है श्रीमाल मगर मे जो पूर्व दिशा में रहते थे, वे ही प्रारमे ये वैष्णव है पर प्राचीन काल में अधिकतर धर्मनिष्ठ वाट या पोरवाल कहलाये॥२५ । आब के प्रसिद्ध देवालय जैन रहे है । बुंदेलखण्ड मे अहार, खजुराहो आदि स्थानों इन्ही के बनवाये है। दसवी शताब्दी से इनके उल्लेख में इनके मदिर, व जिनमूर्तियाँ मिलती है। दशवी से मिलते है। माहेश्वरी या महेसरी जाति के बारे में ऐसा तेरहवी शताब्दी तक कितनी ही प्रतिष्ठायें इनके द्वारा प्रसिद्ध है कि झझन् (राजस्थान) के पास लुहार्गल क्षेत्र हुई है । गृहपति जाति के पाणाशाह ने बुंदेलखण्ड में अनेक पर कुछ राजपूत, यज्ञ में बाधा डालने पर मुनियों के भोयरे निर्माण कराये थे । इनके बारे मे कई किवदंतियाँ श्रापवश पाषाण हुए, पीछे महेश्वर, पार्वती की कृपा से कही जाती है। इनमे कुछ शैव भी होते थे । एक गृहपति पुनर्जीवित होकर वैश्यत्व ग्रहण किया। इनकी उत्पत्ति द्वारा खजुराहो में शिवालय बनाये जाने का उल्लेख है। खडेला, इदौर के निकट महिष्मती, राजस्थान में डीडवाना यह वैश्य जाति प्राचीन प्रतीत होती है प्राचीन साहित्य आदि से बताते है पर मुजफ्फरनगर के माहेश्वरियों का मे विशेषकर बैश्य साहित्य में बहधा ही वैश्यो के लिये कहना है कि उनका मूलस्थान भरतपुर के पास महेशन गृहपति शब्द प्रयुक्त हमा है। चित्तौड़ में प्राप्त पाठवीं नगर में था", यह ही सभावित लगता है। बिडला प्रादि शताब्दी के एक लेख मे२१ गहपति जाति के मानभङ्ग कोट्याधीशो के उदय से ये मारवाडियों में सर्वाधिक नामक शासक द्वारा शिवालय और कूडादि के निर्माण का सपन्न माने जाते है। इनके ७६ गोत्रों को कभी तो उल्लेख है । इनमे १२ गोत्र है। तीन भागों में विभक्त २३. वही, भा० १३, पृ० १४७ । है। अधिकतर निवास बुंदेलखण्ड मे है, पिण्डारियों के २४. ब्रा०. पृ० १००। भय से कुछ उ० प्र० मे भी जा बसे है१२ । नेमा जाति २५. KC. Jain, p. 163. २१. K.C. Jain, p. 223. २६ ब्रा, पृ० ५७०। २२. हि० वि०, भाग ६, पृ० २६२ । २७. हि० वि०, भा० २२, पृ० ३७५ ।

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