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६०, वर्ष २७, कि०२
अनेकान्त
सबसे अधिक जनसंख्या इन्ही की है । अधिकतर गौरवर्ण बारहवी शताब्दी से उल्लेख मिलते है । बरहिया वरया होते हैं। ये पोरवाड़ो (प्राग्वाट) से भिन्न है। ग्यारहवी का ही रूपातर है । मुरैना के गुरु गोपालदास जी वरया शताब्दी से इनके शिलालेख मिलते है। जैसवाल उ० प्र० इसी जाति के थे । श्री माल जाति का भादि वास दक्षिणी के रायबरेली जिले में स्थित जैस या जायस नामक प्राचीन राजस्थान स्थित भीनमाल स्थान मे था, जो कभी श्रीमाल नगर के अधिवासी थे । सूफी कवि 'जायसी' यही के थे। नाम से विख्यात था। यह स्थान विद्वान ब्राह्मणों के वास अनेक जातियां इसी को अपना प्रादि स्थान बताती है। के कारण चौहानों की ब्रह्मपुरी कहलाता था । श्रीमाली बरई (पनवाडी) जाति में", कुर्मियों में, खटीको मे, ब्राह्मण यही से हुए है। कैलाशचन्द्र जैन के मत से श्री चमारों मे", और कलार जाति में एवं राजपूतों मे जैस- माली जैन पाठवी शताब्दी मे सभवत : रत्नप्रभसूरि द्वारा बाल नाम के विभाग है । कैलाशचन्द्र जैन के विचार से स्थापित हुए। ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्ड के मत से अमरजैसवाल जैसलमेर से निकले है। लेकिन जैसवालों द्वारा सिह जैन ने श्री माली वैश्यो को जनमत मे लिया। प्रतिष्ठित अनेकों जैन मूर्तियाँ सं० १२०० और बाद की श्रीमाली वैश्यो मे दसा-बीसा भेद है। बीसा सभी प्रहार (बुंदेलखन्ड) में है, जबकि जैसलमेर की स्थापना श्रावक है, दशा श्रावक व मेश्री (वैष्णव) दोनों है ।।१० सं० १२२० के आसपास हुई थी, और यह प्रहार से अतः आदि से ही जैन रहे होगे। श्रीमाली-ब्राह्मणो काफी दूरी पर है। हमड़ राजस्थान, गुजरात, मालवा व मे से कुछ प्रोसवाल जैनो के गोर उपाध्याय है, ये ही महाराष्ट मे निवास करते है। ये दसा-बीसा भेदों मे भोजक कहलाते है । श्रीमाल जैन राजस्थान, गुजरात में विभक्त है । ग्यारहवी शताब्दी से इनके उल्लेख मिलते विशेषकर वसते है । लमेंच मूतिलेखों आदि मे लबकचुहै। खण्डेलवाल राजस्थान स्थित खण्डेला नगर संभूत है। कान्वय नाम से प्रसिद्ध है । दशवो-ग्यारहवी शताब्दी से ये जैन और वैष्णव दोनो ही है। सं० १८५० की इनके उल्लेख मिलते है। इनका निकास लबकाचन श्रावकोत्पत्तिप्रकरणम् में इनके ८२ गोत्रों की उत्पत्ति
नामक नगर से हमा जान पडता है। प्रोसवाल सुप्रसिद्ध
की राजपत कूलों से, और २ गोत्रों की उत्पत्ति सोनी कुलो से जन जाति है। राजस्थान स्थित ओसिया या उपकेश कही गयी है। हो सकता है ये दो कुल सोनगरा चौहानों नामक प्राचीन नगर से, रत्नाप्रभसूरि द्वारा आठवी शताब्दी के हों ये ही ८४ सरावगी है। कभी कभी इनके ७२ गोत्र मे इस जाति का निर्माण हुआ । प्रारंभ में अठारह कुल भी कहे जाते है। वैष्णवो मे कभी-कभी खण्डेलवाल- थे । मुसलमानो के भय से अनेक क्षत्रिय-गण वैश्य होकर ब्राह्मणों से या खण्डु ऋषि आदि से उत्पत्ति कही जाती इसमे मिलते रहे है"१२ । इस प्रकार कुल १४४४ गोत्र है पर खण्डेला नगर से ही मान्य है। खण्डेलवाल ब्राह्मण निर्मित हुए ऐसा कहा जाता है। अक्सर ये राजपूतो की गौड-ब्राह्मणों के अंतर्गत है", राजस्थान मे ही उनका ही तरह गौरवर्ण होते है । ये श्वेताबर जैन ही है. कोई वास है। इनमे भी ८४ गोत्र है। खंडेलवाल जैनों के कोई दिगम्बर जैन या वैष्णव भी है । दसा-बीसा भेद है।
जनसख्या में वैश्यो मे अग्रवालो के बाद इनका ही स्थान ८. जैन समाज की कुछ उप जातियाँ, परमानंद शास्त्री, अनेकांत, जून ६६, पृ० ५० ।
१५. KC. Jain. 'Ancient cities and towns of
Rajasthan,, p. 183. ६. हि. वि०, भा० ८ पृ० २६२ ।
१६. ब्रा०, पृ० ११७ । १०. 'Caste and Race in India', p. 31.
१७ हि० वि०, भा०२२, पृ० ३७२ । ११. The Caste System of Northern India,
१८. चद्रबाड का इतिहास, परमानंद जैन शास्त्री, मनेकात, _EA.H Blunt. 1931, p. 53,55,209.
दिसम्बर ७१, पृ० १८६ । १२. अन्यत्र सं० ११४५ एव ११६० की भी है।
१६. रमेशचंद्र गुणार्थी, 'राजस्थानी जातियों की खोज', १३. हि० वि०६, पृ० ३६७ ।
पृ०५६ । १४. वही, भा० ४, पृ० ७१८ ।
२०.K.C. Jain, p. 191.