Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 96
________________ हिन्दी-जैन पदों में प्रात्म सम्बोधन प्रकाश चन्द्र जैन हिन्दी साहित्य के विविध रूपो मे गेय पदो का अपना के साथ इन पदो का गायन करते हुए पास-पास के वाता' एक मौलिक व्यक्तित्व है । गीति काव्य का सीधा सम्बन्ध वरण को रसा कर देते है । हृदय से है। हृदय की अनुभूति विशेष साधन पाकर संगीत विषय की दृष्टि से उक्त पदो का कई भागो में के प्रावरण में गेय पदो मे प्रस्फुटित हो उठती है। गेय पद वर्गीकरण किया जा सकता है। परन्तु अधिकाश पद भक्ति लिखते समय हृदय इतना रस-विभोर हो जाता है कि तथा अध्यात्म भावना पर ही आधारित है। ससार की उसमें तर्क, बुद्धि आदि का कवि को स्मरण ही नही असारता, मन की मूढता, जीव की विषय-लोलुपता को रहता। निन्दा, भगवान की महिमा का वर्णन तथा प्रात्म-निन्दा हिन्दी गेय पदो के रचनाकारो मे जैन कवियो को नहीं आदि विषयो को लेकर प्रचरता से पदों की रचना की भुलाया जा सकता है। अभी तक प्राप्त जैन कवियों की पद गई है। रचनाएं हमारे जैन समाज के लिए गौरवपूर्ण निधिया है। यहा मै जैन कवियों द्वारा रचित ऐसे पदो का वर्णन जैन पदो में प्राय: विषय सामग्री प्रभुस्तवन, आध्यात्मिकता करूंगा जिनमें उन्होंने अपनी आत्मा को समझाया है। एक कुछ-कुछ शृङ्गार, विरह एवं भक्ति भावना से सम- प्रायः यह पद-रचयितानों की परम्परा रही है कि वे भक्ति न्वत है। इन सभी विषयो मे सम्बन्धित पदा में सनीता- विभोर होकर ईश्वर मे इतने तन्मय हो जाते है कि उन्हें तमिकता, गेयता, रागात्मकता एव माधुर्य तो पाया ही अपना व्यक्तित्व बहुत तुच्छ, निन्दनीय, विकार-अस्त एवं जाता है साथ-ही-साथ भाषा का परिष्कार, भावो की विषय-लोलुप दिखाई देने लगता है । वे बार-बार अपनी स्पष्टता तथा रस की गहनता भी प्रचुरता से निहित है। दयनीय दशा को देखकर मन को या आत्मा को सम्बोधित जैन कवियो द्वारा रचित गेय पद हमे प्रचुर मात्रा में कर कर्तव्य का ज्ञान कराने लगते हैं । यह बात विशेषरूप मिलते है। सूर, मीरा, तुलसी, कबीर आदि कवियो की से स्मरणीय है कि जैन कवि कभी भी कोरे उपदेशक के तरह जैन कविया के इन पदो का जैन सम्प्रदाय में विशेष रूप में समाज के सामने नहीं पाया है। वह अपनी प्रात्मा महत्व रहा है। भक्तगण रस-विभोर होकर बड़े माहाद का उद्धार करने के बाद ही दूसरों को अपना अनुकरण तथा मन्त्री मानन्द के साथ रत्नों के कलश उठाकर प्राज्ञा का पालन करते थे उसी प्रकार मेरे पुत्र पर प्रेम कुमार का मस्तकाभिषेक करते थे। उनके रत्नकम्भों में करें और उसके शासन को मार्ने । भी पवित्र तीर्थोदक भरा रहता था अन्त में स्वयं राजा राज्याभिषेक करने वालों की श्रेणी मे भोज प्रमुखो युवराज पद का द्योतक पट्ट (मुकुट तथा दुपट्टा) बांधता (भोजमुख्या) का नाम आया है"। भोजो की शासनथा। महाराज की प्राज्ञा से पाठ चामरधारिणी युवतियाँ प्रणाली भौज्य कहलाती थी, जिसका ब्राह्मण प्रन्यो में चवर ढोना प्रारम्भ करती थी। अन्त में राजा बच्चे से उल्लेख हुआ है। इस शासन प्रणाली में गणराज्य की लेकर बुद्धपर्यन्त अपने कुटुम्बी और परिचारकों को, राज्य स्थापना मान्य थी। ऐतरेय के अनुसार यह पद्धति सात्वत के सब नगरों, राष्ट्रों (राज्यों), पत्तनो (सामुद्रिक नगरों), राजानो (यादवों) में प्रचलित थी। महाभारत के अनुसार समस्त वाहनों, (रषादि) यानो तथा रत्नों को अपने यादवों का अन्वकवृष्णि नामक संघ था। मतः भोज्य शासन पुत्र को सौप देता था। उस समय वह उपस्थित नागरिको गणराज्य का एक विशिष्ट प्रकार का शासन था"।। तथा कर्मचारियों से यह भी कहता था कि आप लोग जिस ५८. वराङ्ग च. ११७६१-६८५६. वही १११६४ प्रकार मेरे प्रति स्नेह मे बँधे हुए चित्त वाले थे तथा मेरी ६०. बलदेव उपाध्याय वैदिक साहित्य और संस्कृति पृ. ४७२

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