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महान मौर्यवंशी नरेश : सम्प्रति तथा स्वदेश लौटने पर श्रमणों के प्रति भक्तिभाव रखने विशेषण प्रयुक्त किया गया है। इस विशेषण से यह प्राशय की सलाह । सीमात शासकों ने स्वदेश लौटने पर वहाँ निकलता है कि सम्प्रति ने श्रमणों के लिए अनेको विहारों उक्त धर्म की घोषणा की तथा चैत्यो का निर्माण कराया। का निर्माण कराया था। उसके द्वारा सवा करोड़ जिना
अरोक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि सम्प्रति ने अपने लयों के निर्माण का वर्णन कल्पसूत्र की सबोधिका" में सीमांत प्रदेशों में भी अपने प्रभाव के फलस्वरूप जैन धर्म है। जहां तक सम्प्रति द्वारा सवा करोड़ जैन मन्दिरो के का प्रचार किया। जैन प्रथों के वर्णन के प्राधार पर यह बनवाये जाने का प्रश्न है, निश्चित ही यह कथन पतिज्ञात होता है कि वे प्रत्यंत राज्य जहाँ विवेच्य काल मे शयोक्तिपूर्ण है। सामान्यरूप से, हम यह निष्कर्ष निकाल इस धर्म का प्रचार हुप्रा था, प्रांध्र, द्रविड, महाराष्ट्र एव सकते हैं कि मम्प्रति ने बहुत से जैन मन्दिरो का निर्माण कुडक्क थे। मांध्र व महाराष्ट्र राज्य अशोक के विजित' कराया था। डा. स्मिथ का कथन है कि जिन किन्हीं (साम्राज्य) के अन्तर्गत थे, पर सम्प्रति के समय मे वे भी प्राचीन जैन मन्दिरों एवं अन्य कृतियों की उत्पत्ति प्रत्यंत राज्य हो गये थे।
एवं निर्माण प्रज्ञात हो उन्हे लोग सम्प्रति द्वारा निर्मित जैन धर्म के अनुसार, जिस ढग से साधुमों को वस्त्र मान लेते हैं"। प्रसिद्ध इतिहासकार टाड का मत है कि एवं अन्न मादि व्यापारियों द्वारा राज्य की ओर से प्राप्त राजस्थान और सौराष्ट्र में जितने भी प्राचीन जैन मन्दिर कराये जा रहे थे, वह अनुचित था। परन्तु राजशक्ति के है, उन सबके विषय में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि प्रयोग के कारण किसी ने भी उसका विरोध नहीं किया। उनका निर्माण राजा सम्प्रति द्वारा कराया गया था। किन्तु सम्प्रति के धर्मगुरु सुहस्ती के निकट सपर्की प्राचार्य सम्प्रति का एक उपनाम 'चन्द्रगुप्त' भी था। जैन महागिरि ने इसका विरोध किया, तदपि सुहस्ती ने सम्प्रति ग्रंथो के पनुसार, सम्प्रति (चन्द्रगुप्त द्वितीय') के शासन के कारण इन सुविधानों का समर्थन किया। परिणाम- काल में एक बड़ा प्रकाल पड़ा। यह बारह वर्ष तक रहा। स्वरूप, महागिरि ने सुहस्ती से सम्बन्ध-विच्छेद कर सम्प्रति ने मुनिव्रत ले लिया और दक्षिण में जाकर पन्त लिया।
में उपवास द्वारा इहलोक से मुक्ति प्राप्त कर ली। सम्राट अशोक की भाँति सम्प्रति ने भी जैन धर्म के
वस्तुतः इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैन धर्म के प्रसार के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। उसने अपने
भारत में दूर दूर तक फैलाने का श्रेय संप्रति को ही है। राज्य एवं प्रत्यंत देशों में बहुत से चैत्यों, देवालयों एवं
उसी के काल में जैन धर्म के लिए वह प्रयत्न हुपा, जो मठों का निर्माण कराया। सम्प्रति द्वारा जैन मन्दिर एवं
उससे पहले अशोक ने बौद्ध धर्म के लिए किया था। विहार मादि बनवाये जाने का वर्णन 'परिशिष्ट पर्व' एवं 'पाटलिपुत्र नगर कल्प' मे किया गया है। परिशिष्ट पर्व'
व्याख्याता-प्राचीन भारतीय इतिहास के अनुसार, सम्प्रति ने 'त्रिखण्ड भरत-क्षेत्र' (भारत)
शास. महाविद्यायय डिन्डोरी (मंडला) को मैन मन्दिरों से मंडित कर दिया था। पाटलिपुत्र नगर कल्प में सम्प्रति के लिए 'प्रवर्तित श्रमणविहारः'
(म०प्र०) ८. 'सुहस्तिनमितश्चार्य महागिरिरभाषत ।
९. "प्रावताढ्यं प्रतापदयः स चकाराविकारधीः ।
त्रिखण्डं भरतक्षेत्र जिनायतनमण्डितम् ॥ वही, ११३६५ प्रनेषणीयं राजानं किमादत्से विदन्नपि ॥११॥
१०. "सम्प्रति · पितामहदत्तराज्यो रथयात्राप्रवृत्त श्रीपार्यसुहम्स्युवाच भगवन्यथा राजा तथा प्रजाः ।
सुहस्तिदर्शनाज्जात-जाति स्मृतिः... जिनालय राजानुवर्तनपराः पौरा विश्राणयन्त्यतः ॥११॥
रूपादकोटि ‘मकरोत् । भायेयमिति कुचितो जगदार्यमहागिरिः।
-कल्पसूत्र सुबोधिनी टीका, सूत्र ६ । शान्तं पाएं विसम्भोग खल्वनः परमावयोः ॥११६॥ ११. रिमय : अर्ती हिस्ट्री माफ इंडिया, पृ. २०२ ।
-परिशिष्ट पर्व, एकादश सर्ग। १२ टार: राजस्थान, प्रथम नाग, पृ०७२१-१३।