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उत्तर भारत में जैन पक्षी पावती का प्रतिमा-निरूपण
वरदाक्ष, सर्प (त्रिफणा), पाश एवं फल प्रदर्शित है। पारम्परिक स्वरूप में चित्रण प्राप्त होता है। तीन सर्प वाहन मकर का प्रदर्शन परम्परा विरुद्ध है, पर सर्प एवं फणों से सुशोभित पद्मावती कुकुंट-सर्प पर पारूढ़ है; पाश का चित्रण पद्मावती से पहचान का समर्थक है। और उसकी भुजानों में पद्म, पाश, अंकुश एवं फल साथ ही दहलीज के दूसरे छोर पर पार्श्व यक्ष का चित्रण प्रदर्शित है। भी इसके पद्मावती होने को प्रमाणित करता है। उत्तर प्रदेश-मध्य प्रवेश : स्वतन्त्र मूर्तियां- इस सम्भव है वाहन मकर का प्रदर्शन पावं यक्ष के कूर्म वाहन क्षेत्र की प्राचीनतम मूर्ति देवगढ़ के सामूहिक चित्रण से प्रभावित रहा हो।
. (८६२) से प्राप्त होती है। समूह में पार्श्व के साथ विमलवसही की देवकूलिका: ४६ के मण्डप के वितान 'पद्मावती' नाम की चतुर्भुजा यक्षी भामूर्तित है। यक्षी पर उत्कीर्ण पोडश भुज देवी की सम्भावित पहचान की भुजामों में वरद, चक्राकार सनाल पद्म, लेखनीपट्ट महाविधा वैरोट्या एव यक्षी पदमावती-दोनों ही से (या फलक), एवं कलश प्रदर्शित है"। यद्यपि दिगम्बर की जा सकती है। सप्त सर्पफणो से मण्डित एवं ललित परम्परा मे चतुर्भुजा एवं पद्मवाहना पद्मावती की मुद्रा में भद्रासन पर विराजमान देवी के आसन के समक्ष भुजा में पद्म के प्रदर्शन का निर्देश दिया गया है, पर तीन सर्पफणों से युक्त नाग (वाहन) प्राकृति को नमस्कार अन्य प्रायुधों की दृष्टि से यक्षी का चित्रण पारम्परिक गुद्रा में उत्कीर्ण किया गया है। नाग की कटि के नीचे नही प्रतीत होता है। वाहन एवं सर्पफण भी अनुपस्थित का भाग सर्पाकार है। नाग की कुण्डलियां देवी के दोनों है। यक्षी के साथ पद्म, लेखनी पट्ट (?) एवं कलश का पार्यो में उत्कीणित दो नागी आकृतियों की कुण्डलियों से प्रदर्शन पद्मावती के स्वरूप पर सरस्वती के प्रभाव क गुम्फित है । हाथ जोड़े एवं एक सर्पफण से मण्डित नागी संकेत देता है। प्राकृतियो की काटि के नीचे का भाग भी सर्पाकार है। लगभग नबी-दसवी शती की एक पद्मावती (?) देवी की भुजानो में वरद, नागी के मस्तक पर स्थित मूनि नालन्दा के मठः ६ से प्राप्त होती है, और सम्प्रति त्रिशूल-घण्ट, खड्ग, पाश, त्रिशूल, चक्र (छल्ला), दो नालन्दा संग्रहालय में सुरक्षित है। ललितमुद्रा में पद्म ऊपरी भुजायो म सप, खेटक, दण्ड, सनालपदमकलिका, पर विराजमान चतुर्भुजा देवी के मस्तक पर पाच सर्पवज्र, सर्प, नागी के मस्तक पर स्थित, एवं जलपात्र फण प्रदर्शित है। देवी की भुजायो में फल, खड्ग, परशु प्रदर्शित है। दोनो पावों में दो चामरधारिणी दो कलश- एवं चिन्मुद्रा प्रदर्शित है। चिन्मुद्रा में पद्मासन का धारी सेवक एव वाद्यवादन करती प्राकृतियां अंकित है। स्पा करती देवी की भुजा में पद्म नलिका भी स्थित सप्त सर्पफणो का मण्डन जहाँ देवी की पद्मावती से है। केवल सर्पफण के ग्रावार पर मूर्ति की पद्मावती पहचान का समर्थन करता है, वही कुक्कुट मर्प के स्थान से पहचान उचित नहीं है। साथ ही नालन्दा बौद्ध केन्द्र पर वाहन रूप में नाग का चित्रण एव भुजानो मे सर्प रहा है. जहों से प्राप्त होने वाली यह एकमात्र सम्भावित का प्रदर्शन महाविद्या वैरोट्या से पहचान का प्राधार जैन मूर्ति है। प्रस्तुत करता है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रारम्भिक दसवीं शती की तीन द्विभुज पद्मावती कभी बेरोट्या एव पद्मावती के बहभज स्वरूप का ध्यान मूर्तियाँ मालादेवी मन्दिर के मण्डप को जंधा पर उत्तीर्ण नही किया गया है। श्वेताम्बर परम्पग में दोनो ही है। त्रिभग में खड़ी यक्षी के मस्तक पर पांच सर्पफणों चतुर्भुज है।
१०. ब्रन, क्लाज, 'द जिन-इमेजेज प्राफ देवगढ़', लिडन जिन संयुक्त मतियाँ-इस क्षेत्र की सभी पार्श्वनाथ १६६६ पृ. १०२, १०५, १०६, चक्राकार सनालपदम मूर्तियो मे यक्षी रूप मे अम्बिका को आमूर्तित किया गया जैन देवी तारा से सम्बद्ध रहा है। गया है। केवल विमलवसही की देवकुलिका ४ की पार्व- १६ 'पार्षीयलाजिकल सर्व ग्राफ इण्डिया', ऐनुअल रिपोर्ट नाथ मूर्ति (११८८) मे ही चतुर्भज पद्मावती का १९३०-३४; भाग २, फलक: ६८, चित्र बी० ।