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वराङ्गचरित में राजनीति
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थे। भोगों की प्रचर सामग्री वहाँ विद्यमान रहतौ 'पी, विदर्भ विदिशा पाञ्चाल आदि देशों के राजा लोग अपनी सम्पत्ति की कोई सीमा नहीं होती थी। इस प्रकार वहाँ विशाल सेना के साथ सम्मिलित हुए थे। राजा वराङ्ग के निवासी अपने को कृतार्थ मानते थे।" राज्यशासन करने ने सागरवृद्धि, धनवृद्धि, वसूक्ति, अनन्तसेन, देवसेन, वाले व्यक्ति को बहुत बड़े उत्तरदायित्व का पालन करना चित्रसेन, अजितसेन तथा प्रतिप्रधान को क्रमशः विदर्भ, पडता था । अत. कभी-कभी राज्य विरक्ति का कारण भी कोशल, कलिङ्ग, पल्लवदेश, काशी, विदिशा, अमातिराष्ट्र हो जाता था। एक स्थान पर कहा गया है कि राज्य (अवन्ति के राष्ट्र) तथा मालवदेश का राज्य दिया था। अनेक दु.खों का कारण है, इससे चित्त सदा पाकुल रहता राजा के गुण- वराङ्गचरित में धर्मसेन और वराङ्ग है, यह शोक का मूल है। वैरों का निवास है तथा हजारों आदि राजापो के गुणों का वर्णन किया गया है। इन क्लेशो का मूल है । अन्त में इसका फल तुमड़ी के समान गुणो को देखने पर ऐसा लगता है कि जटासिहनन्दि तिक्त होता है । बड़े बड़े राज्यो की धुरा को धारण करने उपयुक्त राजापो के बहाने श्रेष्ठ राजा के गुणों का ही वालो की भी दुर्गति होती है।
वर्णन कर रहे है। इस दृष्टि से एक अच्छे राजा के राज्य विस्तार-यद्यपि अधिकाश प्रतापी राजानो निम्नलिखित गुण प्राप्त होते हैका उद्देश्य राज्य का विस्तार समुद्र पर्यन्त करने का रहता राजा को ग्राख्यायिका, गणित तथा काव्य के रस था" तथापि इसे व्यवहार रूप देने के लिए पर्याप्त शक्ति को जानने वाला, गुरुजनों की सेवा का व्यसनी, दृढ मंत्री और नीतिज्ञता आदि की आवश्यकता होती थी। अतः रखने वाला, प्रमाद, अहकार, मोह तथा ईर्ष्या से रहित, मामर्थ्य तथा कार्य के अनुसार राजाप्रो के भी मनु, चक- मज्जनो और भली वस्तुओं का संग्रह करने वाला, स्थिर वर्ती, वासुदेव (नारायण) प्रतिनारायण, नप, सामन्त · मित्रो वाला, मधुरभाषी, निर्लोभी निपुण पीर बन्धुआदि अनेक भेद थे । वराङ्गचरित के २७ पर्व में मनु, बान्धयों का हितैषी होना चाहिए"। उसका प्रान्तरिक चक्रवर्ती, वासुदेव तथा प्रतिनारायणो के नामों का उल्लेख और वाह्य व्यक्तित्व इस प्रकार का हो कि वह सौन्दर्य प्राप्त होता है । अन्यत्र अनेक राजानो और सामन्तो की द्वारा कामदेव को, न्याय निपुणता से शुक्राचार्य को, जानकारी प्राप्त होती है। एक राजा के प्राधीन अनेक शारीरिक कान्ति से चन्द्रमा को, प्रसिद्ध यश के द्वारा मामन्त राजा रहते थे। शत्रु का आक्रमण होने पर इन इन्द्र को, दीप्ति के द्वारा सूर्य को, गम्भीरता तथा सहनमामन्त राजाओं की अनुकूलता, प्रतिकूलता का बड़ा शीलता से समुद्र को और दण्ड के द्वारा यमराज को प्रभाव पडता था। मथुरा के राजा इन्द्रसेन ने जब ललित- भी तिरस्कृत कर दे। अपनी स्वाभाविक विनय से पुराधीश देवसेन पर आक्रमण किया तो उसकी सेना में उत्पन्न उदार आचरणो तथा महान् गुणों के द्वारा वह अंग, बंग, मगध, कलिङ्ग, सुह्य, पुण्ड, कुरु, अश्मक, अभी- उन लोगों के भी मन को मुग्ध कर ले, जिन्होंने उसके रक, अवन्ति, कोशल, मत्स्य, सोराष्ट्र, विन्ध्यपाल, महेन्द्र, विरुद्ध वैर की दृढ गाठ बाध ली हो। वह कुल, शील, मौवीर, सैन्धव, काश्मीर, कुन्त, चरक, असित, प्रोद्र, २१. वही १६।३२-३४ १८. वराङ्ग च० २११४५ .
२२. वही २११५४-५७ १६. राज्यं हि राजन्वहुदुःखमूलं
२३. वराङ्ग च० ११४८-४६ चित्ताकुलं व्याकृतिशोकमूलम् ।
२४, रूपेणकाममथ नीतिबलेन शुक्र वैरास्पदं क्लेशसहस्रमूलं किंपाक पाक प्रतिम तदन्ते । कान्त्याशशाङ्कममरेन्द्रमुदारकीर्त्या । दुरन्तता राज्यधुरंघुराणां धर्मस्थितानां सुखभागिनो च। दीप्त्यादिवा करमगाघतया समुद्रं विजानता साधुसमुत्थितस्य कथं रतिः स्यान्मम दण्डेन दण्डधरमप्यतिशिष्य एव ॥ राज्यभोगे॥ वराङ्ग च० २६।२३।२४
वराज च० ११५० २०. वराङ्ग च० २०१७५, २११४६
२५. वराङ्ग चरित ११५४