Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 91
________________ वराङ्गचरित में राजनीति 0 डा. रमेशचन्द जैन, विजनौर राज्य-वराङ्गचरित में राज्य के लिए देश', जनपद, मे गोधनादि सम्पत्ति की वृद्धि तथा सुभिक्ष हो, जनता की विषय' तथा राज्य' शब्दों का प्रयोग हुया है। एक राज्य मानसिक तथा शारीरिक स्थिति ऐसी हो कि वह सदा ही के अन्तर्गत अनेक गष्ट्र प्राते थे। राष्ट्र शब्द से अभिप्राय उत्सव भोग आदि मना सके, धर्म तथा आश्रमो का पालन प्रान्त से था। राज्य की परिधि बढी विगाल थी और करने वाले पुरुष मर्यादा का उल्लघन न करें। गुणीजनों उसके अन्तर्गत राजा के अतिरिक्त सेवक, मित्र, कोश, की कीर्ति चिरकाल तक पृथ्वी पर विद्यमान रहे तथा दण्ड, प्रामात्य जनता, दुग', ग्राम, नगर, पत्तन (भामु- समस्त दोपो का नाग हो। राजा स्वय शत्रुनो को जीतने द्रिक नगर), आकर, (खनिको की बस्तिया), मउम्ब, मे समर्थ, जिनधर्म का अनुयायी तथा न्यायमार्ग के अनुखेट", ब्रज' (ग्वालो की वस्तिया), पथ, कानन (जगल), सार प्रजा का पालन करने वाला हो। इस प्रकार की नदी, गिरि (पर्वत), झरने, समस्त वाहन तथा रत्न भावना से युक्त राजा के राज्य की शोभा देखते ही बनती मभी पा जाते थे। राज्य का सद्भाव कर्मभूमि मे ही बत- थी। छोटी छोटी ग्वालो की बस्तियाँ ग्रामों की समानता लाया गया है। भोगभमि राज्य वगैरह का मद्भाव नहीं धारण करती थी और श्रेष्ठ ग्राम नगर के तुल्य हो जाते था। वराडचरित मे राजतन्त्रात्मक शासन के दशन थे और नगर का तो कहना ही क्या वे अपनी सम्पन्नता होते है। इस शासन प्रणाली मे यद्यपि राजा सर्वोपरि था के कारण इन्द्र की अलकापुरी का भी उपहाम करते थे। किन्तु जनता की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए वह मदेव । ऐसे नगर सब प्रकार के उपद्रवो से रहित होते थे । किमी सचेष्ट रहता था। उसके शासन मे अन्याय नही होता अनुचित भय को वहाँ स्थान नहीं होता था। दोपो में फंसने था। राजा की यह भावना रहती थी कि उसके राज्य की वहां पाशङ्का नही होती थी। वहाँ पर मदा ही दान १. वराङ्गचरित १२।४४, २१४५६ महोत्सव, मान सत्कार तथा विविध उत्सव चलते रहते २. वही २०१२७ १६. देशो भवत्वधिक गोधनाढयः ३. वही २०१६२ सुभिक्षनित्योत्सव भोगयुक्तः । ४. वही २६।२३ राजा जितारिजिनधर्मभक्तो ५. वही १११६७ न्यायेन पापात्सकलां धरित्रीम् ।। ६. वही २६४० पाखण्डिनः स्वाश्रमवासिनश्च कृता ७. वही ८.५० स्वसंस्थां न विलङ्घयन्तु । ८. वही यशांसि तिष्ठन्तु चिरं पृथिव्या २. वही १११६७ दोषा:प्रणाशं सकला सकलाः प्रयान्तु ॥ १०. वही १२१४४ जटासिंह नन्दिः वराङ्ग च० २३॥१८-86 ११. वही २११४७ १७. व्रजास्तु ते ग्राम समानतां गताः १२. वही १६६११ पुरोपमाग्रामपरास्तदाभवन् । १३. वही १११६७ पुरं जहोसव च वत्रिणः १४. वही ७।११ पुरं रराजशक्यप्रतिमो महीपतिः ।। १५. वही २८।१६ वराङ्ग च०२११४७

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