Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ भगवान महावीर की भाषा-क्रान्ति 0 डा० नेमीचन्द जैन, इन्दौर महावीर की भाषा-क्रान्ति की एक बड़ी खूबी यह थी कि वह प्राधुनिकता को झेल सकती थी। महावीर तब तक मौन रहे जब तक उन्हें इन्द्रभूति गौतम जैसा अत्याधुनिक नहीं मिल गया। गौतम सब जानता था, उसे परम्परा का बोध था; युगबोध था; किन्तु सब खण्डित, असमग्र, क्रमहीन; महावीर के संसर्ग ने उसमें एक क्रम पैदा कर दिया। वह उस समय की सड़ी-गली, जर्जरित व्यवस्था का ही अंग था किन्तु उसमें जूझने की सामर्थ्य थी। विगत शताब्दियों में जो भी क्रान्तियां घटित हुई हैं, लाकर भी सारी दूरियों का समाधान नहीं कर पाती। उनमें भाषा की, अर्थात् माध्यम को क्रान्तियाँ अधिक भगवान महावीर ने भाषा की इस असमर्थता को गहराई महत्व की है। भाषा का सन्दर्भ बड़ा सुकुमार और संवे- से समझा था। उन्होने अनुभव किया था कि एक ही दनशील संदर्भ है। यही कारण है कि कुछ लोग उसे भाषा के बोलने वालों के बीच ही भाषा ने दूरियाँ पैदा जान-बझकर टाल जाते है और कुछ उसकी समीक्षा में कर ली है। सामान्य और विशिष्ट एक ही युग मे दो समर्थ ही नहीं होते। असल में भाषा संपूर्ण मानव समाज भाषाओं का उपयोग करते है। यद्यपि मूलतः वे दोनों एक के लिए एक विकट अपरिहार्यता है। उसका सम्बन्ध ही होती है। स्रोत मे एक; किन्तु विकास-स्तरों पर दो सामान्य से विशिष्ट तक बड़ी घनिष्टता का है। उसके भिन्न सिरों पर । महावीर ने अपने युग मे भाषा की इस बिना न सामान्य जी सकता है न विशिष्ट । इसे भी यह खाई को, इस कमजोरी को जाना-उन्होंने देखा । पंडित चाहिये, उसे भी। वह एक निरन्तर परिवर्तनशील विका- बोल रहा है, आम आदमी उसके अातंक मे फँसा हुप्रा है। सोन्मुख अनिवार्यता है । ज्योज्यो मनुष्य बढ़ता फैलता है, उसकी समझ मे कुछ भी नहीं है, किन्तु पण्डितवर्ग उस उसकी भाषा त्यों-त्यों बढ़ती-फैलती है। उसका अस्तित्व पर थोपे जाता है स्वय को। दोनो एक ही जमाने मे जीवन-सापेक्ष है, इसीलिए हम उससे बिलकुल बेसरोकार अलग-अलग जीवन जी रहे है। महावीर को यह असंगति कि उसकी अनुपस्थिति में जीवन की समग्र साहजिकता ठप्प हो सकती है। क्योकि उनके युग तक धर्म का, दर्शन का जो विकास हो चुका था वह भाषा की क्लिष्टता और परिभाषाओं के जीवन का हरेक क्षण भाषा के बहुविध संदों मे बियाबान मे भटक गया था। माम आदमी इच्छा होते साँस लेता है। भाषा जहाँ एक मोर सुविधा है, वही हुए भी अध्यात्म की गहराइयों में भाषा की खाई के दूसरी ओर उसने अपने प्रयोक्ता से ही इतनी शक्ति प्रजित कारण उतर नही पाता था । महावीर ने माम मादमी की कर ली है कि वह एक खतरनाक औजार भी है। उसमे इस कठिनाई को माना, समझा और अध्यात्म के लिए सृजन, सुविधा और संहार तीनो स्थितियों स्पन्दित है। उसी के प्रोजार को अंगीकार किया। उन्होने पंडितों की बहधा यही होता है कि भाषा के दो पक्ष वक्ता-श्रोता भाषा को अस्वीकार किया, और सामान्य व्यक्ति की पूरी तरह कभी जुड़ नहीं पाते है संप्रेषण की प्रक्रिया मे। भाषा को स्वीकारा। यह क्रान्ति थी महान् युगप्रवर्तक । सारी सावधानी के बावजूद भी कुछ रह जाता है जिस पाम पादमी को अस्वीकृत होते कई सदियों बीत चकी पर वक्ता-श्रोता दोनों को पछताना होता है। वह पास थीं। महावीर और बुद्ध के रूप में दो ऐसी शक्तियों का

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116