Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 72
________________ ऐतिहासिक जैन धर्म विद्यावारिधि डा. ज्योतिप्रसाद जैन जैन धर्म का परम्परा-इतिहास अधुना-ज्ञात पाषाण- श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, परह, युगीन आदिम मानव से प्रारम्भ होता है। उस काल का मल्लि नाम के श्रमण तीर्थकर हुए जिन्होने अपने-अपने मानव असभ्य, प्रसस्कृत, किन्तु सरल एवं प्रावश्यकतायें समय मे उसी हिसा प्रधान आत्मधर्म का उपदेश दिया। अत्यन्त सीमित थी और जीवन प्रायः पूर्णतया प्रकृत्याश्रित तीर्थकर एक-दूसरे से पर्याप्त समयान्तर से हुए। इनमें से था। उस युग में धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनी- प्रथम तीर्थर तो प्रागैतिहासिक सिन्धुघाटी सभ्यता के तिक किसी प्रकार की कोई व्यवस्था नही थी, न ग्राम युग से भी पूर्ववर्ती है। दूसरे से नौवें पर्यन्त उक्त सभ्यता और नगर थे और न कोई उद्योग-धन्थे। एक के बाद के समसामयिक रहे प्रतीत होते है। दसवें तीर्थंकर शीतलएक होने वाले चौदह कुलकरो या मनुग्रो ने उस काल के नाथ के समय मे ब्राह्मण-वैदिक धर्म का उदय हुमा प्रतीत मानवो का नेतृत्व एव मार्गदर्शन किया और समयानुसारी होता है, जिसका कालान्तर मे उत्तरोत्तर उत्कर्ष एवं सरलतम व्यवस्थाएँ दी। यह युग जैन परम्परा मे भोग- प्रसार होता गया। बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के तीर्थकाल भूमि कहलाता है। में ही अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी (ऋपभदेव की संज्ञा अन्तिम कुलकर नाभिराय थे जिनकी पत्नी मरुदेवी इक्ष्वाकु भी थी) महाराज रामचन्द्र हुए जो अन्ततः अर्हत् से प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ ऋषभदेव का जन्म हा। केवली होकर मोक्षगामी हुए । इक्कीसवें तीर्थकर नेमिनाथ इनके जन्म स्थान पर ही अयोध्या नाम का प्रथम नगर ने मिथिलापुरी में अध्यात्मवाद का प्रचार किया, जिसने बसा । ऋषभदेव ने ही सर्वप्रथम कर्मभमि-कर्मप्रधान जीवन कालान्तर में प्रोपनिषदिक प्रात्म-विद्या का रूप लिया। का प्रारम्भ किया, ग्राम-नगर बसाये, कृपि, शिल्प आदि बाईसवे तीर्थकर अरिष्टनेमि महाभारत काल में हुए और उद्योग-धन्धों का प्रचलन किया, विवाह प्रथा, समाज नारायण कृष्ण के ताऊजात भाई थे। कृष्ण उस युग की व्यवस्था, राज्य व्यवस्था स्थापित की, लोगों को अक्षरज्ञान राजनीति के तो सर्वोपरि नेता थे ही, उन्होंने ब्राह्मण और श्रमण अथवा बौद्धिक और प्रात्य संस्कृतियो के समन्वय एवं अंक ज्ञान दिया, अन्त में गृहत्यागी होकर तपस्या द्वारा प्रात्मशोधन किया, केवल ज्ञान प्राप्त किया और का भी स्तुत्य प्रयत्न किया। धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। लोक के कल्याण के लिए महाभारत युद्ध के कई शताब्दी पूर्व से ही वैदिक धर्म जिस सरलतम धर्म का उन्होने उपदेश दिया वह हिसा, के उत्तरोत्तर वृद्धिगत उत्कर्ष के सम्मुख श्रमण धर्म अनेक संयम, तप एव योग प्रधान मोक्ष मार्ग था। उनके ज्येष्ठ अंशों मे पराभूत-सा हो गया था। किन्तु उस महायुद्ध के पुत्र भरत सर्वप्रथम चक्रवर्ती सम्राट् थे। उन्ही के नाम से परिणामस्वरूप वैदिक आर्यों की राज्य-शक्ति एवं वैदिक यह देश भारतवर्ष नाम से प्रसिद्ध हुआ। भरत के अनुज धर्म का प्रभाव पतनोन्मुख हुए और भारतीय इतिहास का बाहुबलि परम तपस्वी थे । दक्षिण भारत में श्रवणबेल- उत्तर वैदिक युग प्रारम्भ हुआ, जो साथ ही श्रमण धर्म के गोल आदि की अत्यन्त विशालकाय गोम्मट मूर्तियां उन्हीं पुनरुत्थान का युग था। तीर्थवार नेमि और नारायण की है। कृष्ण इस श्रमण पुनरुत्थान के प्रस्तोता थे और २३वें ऋषभदेव के उपरान्त क्रमश. अजित, सम्भव, अभि- तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ (८७७-७७७ ईसा पूर्व) उक्त आन्दोनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ सुपार्श्व, चन्द्रप्रभु, पुष्पदन्त, शीतल, लन के सर्वमहान् नेता थे। अन्त मे अन्तिम तीर्थडुर

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