Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 74
________________ हुआ। सामान्यतः शक, कुषाण, गुप्त, वर्धन, आयुध, गुर्जर, १३वी शती के प्रारम्भ से लेकर १८वी शती के. प्रतिहार, गहड़वाल, तोमर, चौहान आदि पूर्व मुस्लिम- प्रारम्भ तक भारतवर्ष में मुस्लिम शासन की प्रधानता कालीन प्रायः सभी महत्वपूर्ण शासको से उसे सहिष्णुता- रही और उस काल मे जैन धर्म की स्थिति तथाकथित पूर्ण उदारता का ही व्यवहार प्राप्त हुा । मध्यप्रदेश और हिन्दू धर्म जैसी ही रही। शासको की दृष्टि मे दोनो में मालवा के कलचुरि, परमार, कच्छपघट, चन्देल आदि भेद नही था, दोनो ही विधर्मी काफिर थे। जैनो का संख्या नरेशों से, गुजरात के मंत्रय, चावड़ा, सोलंकी और बधेले बल उत्तरोत्तर घटता गया और वे वाणिज्य-व्यापार मे राजाओं से तथा राजस्थान के प्राय: सभी राज्यो मे ही सीमित होते गये। इसीलिए शान्तिप्रिय एव निरीह पर्याप्त प्रश्रय और संरक्षण भी प्राप्त हुआ। राजस्थान मे होने के कारण शासको के धामिक अत्याचार के शिकार तो यह स्थिति वर्तमान काल पर्यन्त चलती रही। मत्री, भी अधिक नहीं हुए। उस काल मे अन्त के डेढ गौ वर्षों दीवान, भडारी, दुर्गपाल, सेनानायक आदि पदो पर भी का मगल शासन अपेक्षाकृत अधिक सहिष्णु रहा। अनेक जैन नियुक्त होते रहे और वाणिज्य-व्यापार एव साहूकार तो अधिकतर उनके हाथ मे रहता रहा । तदनन्तर लगभग डेढ़ सौ वर्ष देश में अराजकता का अन्ध-युग रहा, जब किसी का भी धन, जन एव धर्म उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में जैन धर्म सुरक्षित नही या। उसके पश्चात १९वी शती के मध्य की स्थिति कही अधिक श्रेष्ठ एव सुदृढ रही। ईस्वी सन् के लगभग से लेकर १९४७ मे स्वतन्त्रता प्राप्ति पर्यन्त के प्रारम्भ में लेकर १६वी शती के मध्य में विजयनगर देश पर अग्रेजों का शासन रहा । शान्ति, मुरक्षा, साम्राज्य के पतन पर्यन्त तो अनेक उत्थान-पतनो के बाव न्याय, शासन, पश्चिमी शिक्षा का प्रचार, पुस्तकी एवं जूद वह वहा एक प्रमुख धर्म बना रहा । मुदूर दक्षिण के समाचार पत्रो का मुद्रण-प्रकाशन, यातायात के साधनों प्रारम्भिक चेर, पाड्य, चोल, पल्लव, कर्णाटक का गगवश का अभूतपूर्व विस्तार, नव जागति, समाज सुधार एवं और दक्षिणापथ के कदब, चालुक्य, राष्ट्रकूट, उत्तरवर्ती स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किये गये आन्दोलन एव मंघर्ष चालुक्य, कलचुरि, होयसल आदि वंशो के अनेक नरेश, इस युग की विशेषताएँ रही और जैनी जन उन सबसे ही उनके अनेक सामन्त, सरदार, सेनापति, दण्डनायक, मत्री, यथेष्ट प्रभावित रहे। उन्होंने सभी दिशानो में प्रगति की, राज्य एव नगर-श्रेष्ठि जैन धर्म के अनुयायी हुए। जन स्वतत्रता संग्राम में भी सोत्साह सक्रिय भाग लिया और सामान्य की भी प्राय: सभी जातियो एवं वर्गो मे उसका बलिदान किए। अल्पाधिक प्रचार रहा। किन्तु वही ७वी शती के शैव स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी राष्ट्र के पुननिर्माण में नयनारों और वैष्णव अलवारो के प्रभाव में कई नरेशों उनका उपयुक्त योगदान रहा है। जैन धर्म अपनी मौलिक ने तथा ११वी-१२वी शती से गंवधर्मी चोल सम्राटो ने, विशेषताओं को लिए हुए अब भी सजीव सचेत जीवनरामानुजाचार्य के अनुयायी कतिपय वैष्णव राजाओं ने दर्शन है और वर्तमान युग की चनौतियों को स्वीकार करने तथा वासव के लिगायत (वीर शैव) धर्म के अनुयायी अनेक नायको ने जैन धर्म और जैनों पर अमानुपिक में सक्षम है। अत्याचार भी किये। परिणामस्वरूप शनैः-शनैः उसकी धर्म-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-कला, आचारस्थिति एक प्रमुख धर्म की स्थिति से गिरकर एक गौण विचार, प्राय: सभी क्षेत्रो में उमकी सास्कृतिक बपौती भी सम्प्रदाय की रह गई। स्पृहणीय है। DD

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