Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ एक अन्तर्राष्ट्रीय जैन शोध-संस्थान की आवश्यकता डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच कई वर्षों से यह विचार बराबर चल रहा है कि केवल हमारे सामने ही नहीं, सरकार के सामने भी होना जैनी की कोई एक शोध व अनुसन्धान की ऐसी संस्था चाहिए । भ० महावीर की पच्चीससौवी निर्वाण शताब्दी होनी चाहिए जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की हो और जिसमें के उपलक्ष में यदि इस महान, स्थायी और बुनियादी की सभी जैन विषयों के अध्ययन, समीक्षा, संशोधन, तुल- लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है तो हम समझेगे कि हमारा नात्मक एवं ऐतिहासिक पर्यवेक्षण तथा विशद रूप से निर्वाण महोत्सव मनाना सफल हो गया है। अध्ययन-अध्यापन एवं निर्देशन की सुविधा प्राप्त हो। यह सवाल कोई पहली बार हमारे सामने नही पाया जैन धर्म तथा तद्विषयक वाङ्मय के अनुशीलन एवं है। कई बार और रूपों में जैन समाज के बनी, मानी पर्यवेक्षण से पता चलता है कि अभी तक जो समीक्षात्मक और प्रबुद्ध लोगो के समक्ष यह समस्या प्रश्नबालक चिन अध्ययन किया गया है वह अधिकतर परिचयात्मक तथा बन कर पा चुकी है। इस सम्बन्ध में सबकी सपनीमलगव्यापक विवरणात्मक है। ठोस अध्ययन रूप में निष्कर्ष, अलग ढंग की प्रतिक्रियायें हैं। हम यहाँ उन सबको ध्यान परीक्षण तथा व्यापक परिवेष में तुलनात्मक अध्ययन में रखकर यह कहना चाहते हैं कि समाज में किसी बात अभी तक नहीं के बराबर हुआ है । इन सब उपलब्धियों की कमी हमे नही मालूम पड़ती है। जो साधुसन्तों के को प्राप्त करने के लिए दो या चार विद्वान् पर्याप्त नहीं चातुर्मास के व्यय में लगने वाले लाखों रुपये के दायित्व हो सकते है। प्राय: दो-चार विद्वानों की परिकल्पना कर को अकेले वहन कर सकते हैं, जो बड़े-बड़े प्रतिष्ठा महोहम समझने लगते हैं कि शोध-संस्थान तैयार हो जायेगा। सबों में लाखों रुपये लगा सकते है और जो मन्दिर परन्तु संस्थान की पूर्णता के लिए व्यापक परिधि की निर्माण में तथा सोने-चाँदी की मूर्तियों के निर्माण कार्य पावश्यकता है। एवं प्रभावना प्रादि में लाखो रुपये ख.कर सकते है, ल्या सुझाव और परिकल्पना वे जिनवाणी के . उद्धार के लिए:- श्रुत की परम्परा केबल जैन विद्वान ही नहीं अन्य देश-देशान्तरों के जीवित रखने के लिए तथा जिन घर्ष कोमजीव मौर विद्वान, शिक्षा शास्त्री तथा इतिहासविद् समय-समय पर जनव्यापी बनाने के लिए क्या इतना त्याग-नही कर सकते इस मावश्यकता का अनुभव करते रहते है कि जैनों का कि एक विश्वविद्यालय तैयार हो सके ? .... कोई विश्वविद्यालय होना चाहिए । अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय प्रयोजन के न्यायाधीश बीराधाविनोदपाल और डा० कालिदास इस युग में जिनवाणी तथा प्रागम की सुरक्षा के नाम बहुत पहले ही यह बात कह चुके है। अन्य अनेक लिए शोध संस्थान से बढ़कर कोई पच्छा साधन नहीं है। विद्वान् भी इस बात पर बल देते रहे है कि जैन विश्व- जिन दृष्टाओं ने युग की इस आवश्यकता को पहले ही विद्यालय स्थापित किया जाये। काका साहब कालेलकर पहिचान लिया, वे पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, जिसन विश्वमिशन की परिकल्पना रखते हैं, उसके लालभाई दलपतभाई शोध संस्थान, अहमदाबाद मौर जैन मल में भी बनधर्म व संस्कृति एवं दर्शन का भारतीय एवं विश्वभारती, लाडनू (राजस्थान) जैसी सस्थानों को जन्म पाश्चात्यनों के साथ तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक देकर उनका विकास कर रहे है। पं० फूलचन्द्रजी जैन, विश्लेषग तथा संश्लेषण सम्मिलित है । अध्ययन व अतु- सिद्धान्त शास्त्री 'वर्णी शोध संस्थान' को भी इस रूप में सन्बान की इस नयी परम्परा को गति देने के लिए यह बहुत पल्लवित करना चाहते है । इनके अतिरिक्त 'महावीरायमावश्यक है कि व्यापक दृष्टि को ध्यान मे रखकर अन्त- तन' की योजना भी चल रही है। वैशाली में 'प्राकृत राष्ट्रीय जैन संस्थान की स्थापना होनी चाहिए। यह मन रिसर्च इन्स्टीट्युट' बहुत पहले से चल रही है। परन्तु . ..

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116