Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 49
________________ ७२,२७,०३ अनेकान्त मधुमक्खियों ने समस्त सेना को बाहत कर दिया और सेना को वापिस भागना पड़ा। क्या कारण है ? इसका उत्तर केवल यही है कि महावीर की मूर्ति के प्रासपास का सारा वातावरण, समग्र जड़-चेतन जगन्मूर्ति में विरा जमान महावीर की विशुद्ध धात्मा से प्रभावित था । मनुष्य की अपेक्षाकृत अन्य योनियों का जीवन सरलता के बोध के कारण शीघ्र प्रभावित होता है। मनुष्य पंचेन्द्रिय जीव है। धन्य योनियों का जीवन, जैन सिद्धान्त के धनुसार, भिन्न-भिन्न प्रकार की इन्द्रियों का समुच्चय स्वरूप है । प्रतएव मनुष्य को ज्ञानेन्द्रिय इच्छा जगत् के वशीभूत हो गई है। आदमी की निर्ममता अन्य प्राणियों की अपेक्षा प्राच्छन है और इसी कारण मनुष्य को प्रभावना अंग के लिए इस प्रकाश की अनवरत अपेक्षा है, जबकि अन्य जीवन सरलता से तत्काल प्रभावित हो जाता है। धौरंग जेब की सेना को मनुष्य पीछे नहीं हटा का, मधुमविलय सम्मिलित रूप से इसके प्रतिकार में समर्थ हुई। 1 एक और चर्चा है कि महावीर की मूर्ति को तोड़ने के लिए जैसे ही मूर्तिभंजक मुगल सैनिक ने महावीर के अंगूठे पर नी से चोट की, दूध की धारा मूर्ति के अंगूठे से प्रवाहित हो गई सैनिक प्रवाह रह गया। मूर्ति तोड़ना बन्द हो गया। दुग्ध-धारा के निकलने का अर्थ है शरीर की पवित्रतम वस्तु-जो हिंसा के लिए नहीं, निर्माण के लिए कार्य करती है, प्रकट हो गई थी। दुग्ध जीवनदायिनी शक्ति है, वह सृष्टि का पोषण करता है, उसे सरसता एवं पवित्रता प्रदान करता है। विध्वंसकारियों को विध्वंस का उत्तर मिलता है कि विध्वंस की अपेक्षा जीवन का अभयदान मात्र ही गौरव की बात है। महावीर जिनका जीवन श्रहिंसा का साकार रूप था, हिंसा के उत्तर में इस अहिंसात्मक उत्तर के सिवाय और क्या दे सकते थे। मूर्ति तोड़ना देखने में मात्र पत्थर तोड़ना है, उसमें कोई जीव हिंसा नहीं, किन्तु उसकी पृष्ठभूमि में सेठ भोजराज का बाड़ा. सिविल वार्ड नं० १. दमोह ( म०प्र०). तोड़ने वाले की जघन्य वैचारिक हिंसा का स्पष्ट प्रतिविम्ब है, जिसकी अपनी हिंसा की भावना इतनी तीव्रतर हो चुकी थी कि उसकी तुष्टि मानव सहार से भी निम्नतर स्थिति में पहुंच कर मूर्तियो के तोड़ने तक पहुंच गई थी । तब इस असाधारण हिंसा की लोलुपता को दबाने के लिए साधारण अहिंसा का पाठ पढ़ाना कठिन कार्य था, दूध की धारा प्रवाहित करना उतना ही शक्तिपूर्ण समाधान था । यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि बुन्देलकेशरी महाराजा छत्रसाल देश के गौरव श्रौर संस्कृति को मुसलमानों द्वारा विध्वंस से बचाने के लिए जीवन भर सचेष्ट रहे। उनकी वृद्धावस्था का लाभ उठा कर मुगल उन्हें दबाने लगे थे। महाराजा छत्रसाल भूमि, संस्कृति और जनजीवन की रक्षा के लिए पुनः समर्थजान हो सकने की भावना को लेकर महावीर के चरणों में बंट गये। उन्हें पुनः वह धारमशक्ति प्राप्त हुई कि वे विजातीय मुगल शासन को पराजित करने में समर्थ हो सके । विजातीय किसी भि अर्थ में नहीं, केवल उस अर्थ में है जिसमें प्रांताओं का मस्तिष्क हिंसा की जघन्य वासना से भर जाता है । मैं कभी किसी मभीप्सा से कुण्डलपुर नही गया, किन्तु जब भी गया हूँ और एकान्त मे महावीर की मूर्ति के दर्शन किये है- एक अद्भुत मन शान्ति की उपलब्धि हुई है। मूर्ति से विकणित किरणें एकांत में व्यक्ति को चारों श्रोर से प्रभावित करने लगती हैं, जब किमस्य दर्शनार्थियों के समक्ष प्रजाती है, विकेन्द्रित हो जाती है और प्रस्थापति प्रक्षेपण सके न्द्रित नहीं हो पाता। प्रभाव तो पड़ता है किन्तु जो सर होकर मूर्ति के समक्ष पहुंचता है, वह तत्काल पूर्णतया हृदय से कलुषता एवं यहं का परित्याग करके निर्विकार रूपान्तरित हो जाता है; अन्य को अनवरत दर्शन की अपेक्षा रह जाती है ।

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