Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 46
________________ चम्पापुरी का इतिहास और जैन पुरातत्त्व श्री दिगम्बर दास जैन, एडवोकेट, सहारनपुर अन्तिम भोग भूमि की समाप्ति और कृषि-काल के प्रभावित होकर वह समस्त राजपाट और सांसारिक सुखों भारम्भ मे प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभ देव के जीवन काल का मोह त्यागकर दिगम्बर मुनि हो गया और इतना घोर में जिन ५२ देशों की रचना इन्द्र ने की थी, उनमें एक तप किया कि वह अपनी योग्यता से भगवान का गन्धर्व अंग देश भी था, जिसकी राजधानी चम्पापुरी (भागल बन गया। पुर) थी, जहाँ इस वर्तमान युग के प्रारम्भ में प्रथम रामायण-काल में मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ-काल में विश्व सम्राट भरत ने (जिसके नाम पर हमारा देश महाराज TTM को भारतवर्ष कहलाता है) अनेक विशाल जैन मन्दिर निर्माण जिन्होंने चम्पापुरी में अनेक विशाल जैन मन्दिर बनकराये। समस्त जनता जैन धर्म का पालन करती थी वाये। -और शताब्दियों तक चम्पापुरी का राज्यधर्म जैन धर्म महाभारत के समय बाइसवें तीर्थङ्कर नेमीनाथ के समय चम्पापुरी का राजा दान-वीर, जैनधर्मी कर्ण था दसरे तीर्थदर अजित नाथ के समय चक्रवर्ती सम्राट् जिसने अपने राज्य में जैन धर्म को राज्य-धर्म ना दिया सागर ने चम्पापुरी में जैन मन्दिर बनवाये। था । पुराने किले की उत्तर की ओर आज भी जैन मन्दिर तीर्थर वासुपूज्य के समय मिथलापुरी का राजा पम- के चिह्न शेष हैं। हरिवंश पुराण, सर्ग २२ के अनुसार, रथ था। एक दिन वहक्रीड़ा को वन मे गया। वहाँ उसने स्वयं कृष्ण जी के पिता वसुदेव ने चम्पापुरी मे बासपज्य सूधर्म नामक दिगम्बर जैन महामनि को ध्यान मे देखा। तीर्थङ्कर की पूजा की। महाराजा कर्ण के बनवाएर राजाने उनकी शान्त मुद्रा को देखकर अत्यन्त शान्ति मनुभव भनेक जैन मन्दिरों के चिह्न माज भी कर्णगढ पर्वत की और वन्दना करके उनसे पूछा कि क्या आपके समान दिखाई देते है। इस संसार मे और भी कोई शान्त-चित दिगम्बर मुनि भगवान महावीर के समय चम्पापुरी का सम्राट से प्रत्यन्त शान्त मदा के प्रजातशत्रु था जो बड़ा बलवान और योद्धा था। जब धारी, उत्तम ज्ञान के स्वामी, महागुणवान् सर्वज्ञ बारहवें भगवान महावार स्वामी का समवशरण चम्पापुरी में तीर्थङ्कर श्री वासुपूज्य है जिनके दर्शन मात्र से शांत भाव भाया तो इसने शाही ठाट-बाट से भगवान का स्व दर्पण के समान स्पष्ट दिखायी देते हैं। राजा दो मन्त्रियों किया और उनके उपदेश से प्रभावित होकर दिगम्बर को साथ लेकर उनके समवशरण की ओर चल दिया। देवो ने परीक्षारूप में उन पर प्रत्यन्त भयानक उपसर्ग चम्पापुरी का नगर सेठ वृषभदत्त जैन धर्मी था किये। दोनों मन्त्री भयभीत होकर वापिस चले गये। जिसका सुभग नामक एक ग्वाला था। एक दिन उसने एक किन्तु राजा पपरथ अटल रहे। देव ने राजा की भक्ति और नग्न साधु को रात्रि में तप करते हुए देखा । मोस के श्रद्धा से प्रसन्न होकर उसको समवशरण में पहुंचा दिया, कारण उनका शरीर गीला था। मुनिराज की शान्त मुद्रा जहाँ वह शेर को बकरी से प्यार करते हुए और मोर को से प्रभावित होकर वह सारी रात उनके गोले शरीर को गर्प से खेलते हुए तथा शेरनी के बच्चे को गाय के थन चूसते पोंछता रहा। दिन निकलने पर मुनिराज जाने लगे तो हुए देखकर चकित रह गया। भगवान के उपदेश से उन्होंने ग्वाले को णमोकार मन्त्र दिया, जिसको बह निर

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