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ओसियां का प्राचीन महावीर मन्दिर
श्री प्रगरचन्द जंन नाहटा
राजस्थान में जैन धर्म का प्रचार कबसे हुना ? यह एक अन्वेषणीय विषय है। वैसे तो राजस्थान कई स्थानों के लिए यह मान्यता है कि भगवान महावीर वहां पधारे थे पर ऐतिहासिक दृष्टि से वह बात प्रमाणित नही होती । अतः इस बात को मध्यकालीन लोकमान्यता या धारणा ही कहा जा सकता है । पर मज्झिमका नगरी जो चित्तौड़ के पास है, वहाँ के उल्लेख वाला एक प्राचीनतम जैन शिलालेख है । वह वीर सम्वत ८४ का प्रोझा जी ने बतलाया था । उनकी यह मान्यता थी कि इसकी लिपि मे अशोक आदि के लेखो मे प्रयुक्त ब्राह्मी लिपि से भी कुछ पुरानी मोड़ है । वर्तमान विद्वान उस शिलालेख को उतना पुराना नही मानते फिर भी वह प्राचीन तो है ही ।
प्राचीन जैन ग्रागमो मे राजस्थान के किसी ग्राम नगर का उल्लेख प्रायः नहीं मिलता। पीछे के कई उल्लेखों से मालूम होता है कि राजस्थान का श्रीमाल या भिन्नमाल नगर काफी प्राचीन है। इसी तरह मज्झमिका से भी जैन श्रमण संघ की एक शाखा निकली है । भिन्नमाल के सम्बन्ध मे यह उल्लेख उपकेशगच्छ प्रबन्ध मे मिलता है कि भगवान पार्श्वनाथ के संतानीय स्वयंप्रभ मूरि वहाँ पधारे और जैन धर्म का प्रचार किया। उनके शिष्य रत्नप्रभ सूरि ने ओसियाँ मे बहुत बड़ी संख्या में नये जैनी बनाये, जो आगे चलकर 'प्रोसवाल' कहलाये । श्रीमाल नगर के जैनी 'श्रीमाल' कहलाये और श्रीमाल नगर के पूर्व भाग मे रहने वाले जैनी 'प्रागवाट पोखाड़' कहलाये ।
उपकेशगच्छ प्रबन्ध १४वीं शताब्दी की रचना है मौर उसमे लिखा है कि वीर निर्वाण के ७० वर्ष बाद रत्नप्रभ सूरि ने उपकेशपुर यानि प्रोसिया भौर कोरण्ट प्रर्थात् कोरदा दोनों नगरों में एक साथ ही महावीर बिम्बों की प्रतिष्ठा की। उपकेशगच्छ पट्टावली यही बात
कह रही है :
"सप्तत्या वत्सराणां चरमजिनपतेमुं क्तजातस्य वर्षे, पञ्चम्या शुक्लपक्षे सुरगुरुदिवसे ब्रह्मणः सन्मुहूर्ते । रत्नाचार्यः सकलगुणयुतं सर्वसंघानुज्ञातः श्रीमहावीरस्य बिम्बे भवशतमथने निमितेयं प्रतिष्ठा ॥ उपकेश च कोरण्टे, तुल्यं श्रीवीरबिम्बयोः । प्रतिष्ठा निर्मिता शक्तया, श्रीरत्नप्रभसूरिभिः ॥ "
उपकेशगच्छ प्रबन्धके अनुसार तो राजस्थान में भगवान महावीर के प्राचीनतम मंन्दिर व मूर्तियाँ वीर निर्वाण के ७० वर्ष बाद ही ओसिया और कोरण्टामे प्रतिष्ठित हो गई थी त राजस्थान मे इन्ही को प्राचीनतम महावीर मंदिर और मूर्तियाँ मानी जा सकती है । पर ऐतिहासिक दृष्टि से प्रोसिया नगर मे जैनेतर मन्दिर आदि प्राचीन अवशेष मिले है, वे आठवी-नवी शताब्दी से पुराने नही है । राजस्थान के महान ऐतिहासिक विद्वान गौरीशकर जी श्रोभा ने अपने जोधपुर राज्य के इतिहास के प्रथम भाग में सिया का विवरण देते हुए लिखा है कि यह ओसवाल महाजनों का मूल स्थान । यहाँ एक जैन मन्दिर है जिसमे विशालकाय महावीर स्वामी की मूर्ति है । यह मन्दिर मूलतः स० ८३० (सन् ७८३) के लगभग पडिहार राजा वत्सराज के समय में बनाया गया है । उसके उत्तर पूर्व में मानस्तम्भ है जिसमें सं० ६५२ का लेख है । पहले इसका नाम मेलपुर पट्टण था, श्री हेमचन्द्राचार्य के शिष्य श्री रत्नप्रभाचार्य ने यहाँ के राजा और प्रजा को जैन बनाया । मोझा जी के उल्लखित मानस्तम्भ के ६५२ वाला लेख का तो मुझे पता नही है पर महावीर मन्दिर मे जो प्रशस्ति लगी हुई है। वह सम्बत १०१७ की है । उसमें वत्सराज का उल्लेख है उसी के श्राधार से वत्सराज के समय को देखते हुए श्रोभा जी ने सम्वत ८३० के लगभग श्रोसिया के महावीर मन्दिर बनाने का