Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 9
________________ धर्म की बिक्री श्री ठाकुर सुनने वाला पूछता-क्यो विष्णु मुह क्यो छिपाता देवकोटपुर की जनता को सहसा विश्वास ही नही फिरता है, क्या उसने वह धन वापिस नही देना चाहा ? हुआ कि चारो वेदों का पाठी और पारगामी विद्वान् सोम- विष्णुदत्त उत्तर देता-अगर न देना चाहता तो मुझे शर्मा जैन मुनि बनकर काफी समय पश्चात् यहाँ आया सन्तोष होता, लेकिन मुझे तो आज उससे ही मालूम है। और जब उसने यह सुना कि मुनि सोमशर्मा अपना हुआ कि व्यापार मे उसे लाभ नहीं हुआ। बस, उसने धर्म बेच रहे है तो उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा। मित्रता छोड़ दी। ऋण से मुह मोड़ लिया। अपना धर्म सोमशर्मा को जो जानते है, उनकी धारणा थी कि छोड़ दिया और नंगटा हो गया। सुनने वाले तन्मयता से वह अत्यन्त उच्चकोटि का विद्वान् है। अत्यन्त शान्त, सुनते । सच-झठ से उन्हें कोई मतलब न था। उनमें से मननशील और विचारक है। क्षणिक पावेश या भावकता कोई एक कहता-उसके पितामहो ने भी कभी व्यापार में वह कभी कोई काम नहीं करता । उसने स्वयं ही अपने किया है या वही करेगा । वेद घोके है और किया ही क्या दोनो पुत्रो--अग्निमूर्ति और वायुमूर्ति को अध्ययन कराया है। चले थे लक्ष्मीपति बनने । है। जिनकी विद्वत्ता की कीति का सौरभ सारे पूर्व देश में इस व्यंग्य को सुनकर एक कोई बद्ध कह उठते । पर व्याप्त है। तब जिसने अपने पैतृक धर्म को, उस धर्म को सरस्वती और लक्ष्मी में तो सहज विरोध है। जिसका तलस्पर्शी ज्ञान उसे स्वय भी था। तिलाञ्जलि तीसरा बीच में ही बोल उठा-क्यो भाई विष्णु ? देकर जैन धर्म को अगीकार किया वह अवश्य ही जैन धर्म तुमने उससे अपना धन नहीं मांगा ! के सत्य का साक्षात्कार करके किया होगा और जैन मनि विष्ण उत्तेजित हो उठता और कहता-तुम भी बनने के बाद जिसने धर्म को बेचना चाहा, वह रहस्य से क्या कहते हो--मांगा नहीं। अरे, मै छोड़ने वाला था खाली तो न होगा। उसे । जो मन्त्र दृष्टा महषियो की वाणी को ठुकरा कर इस रहस्य का उद्घाटन किया सोमशर्मा के मित्र मंगटो की शरण में जा पहुचा, उस पर मैं अपना धन छोड़ विष्णुदत्त ने। वह सब कही कहता फिरता था--तुम्ही देता। आज वह इधर होकर निकला जा रहा था, मैने देखो न, विश्वासघात की भी हद होती है। मोमगर्मा को बीच में ही पकड लिया। मैंने तो कह दिया-मेरा धन तो तुम जानते ही होगे, वही कर्म-काण्डी चतुर्वेदी। अरे दे दो तब छोडूगा। वहीं तो, जिसके शतसहव शिष्य है। मन्त्र घोकने-धोकते वह विष्णदत्त के पास और खिसक पाए। वे एक जन्म बीत गया । उसने जितना हवन किया है अगर उसके साथ ही बोले--तब उसने क्या जवाब दिया? धुए का काजल बनाया जाता तो मनो बन जाता। एक जवाब क्या देता खाक | कहने लगा-- मेरे पास धन बार मेरे कहने से ही उसने व्यापार करने की सोची। नहीं है। सासारिक बातो से अब मुझे कोई प्रयोजन भी मैने उसे व्यापार के निमित्त बहुत-सा धन दे दिया। वह नहीं । मेरे लडके समर्थ है। वे तुम्हारा ऋण चुका देंगे। लेकर वाल्हीक पुरुषपुर की ओर चला गया। मैने सोचा लेकिन मै इन चलताऊ बातो में आने वाला नहीं था। --कोई बात नहीं है। मेरे धन से मेरे मित्र को लाभ मैने साफ कह दिया--मुझे तुम्हारे लड़कों से कोई मतलब होता हो तो मुझे प्रसन्नता ही है । लेकिन उसका विश्वास- नहीं । मैंने ऋण तुम्हे दिया है । तुमसे ही मै लगा। घात तो देखो--प्रब मुह छिपाता फिरता है। एक श्रोता ने उत्सुक होकर पूछा--जब वह मुनि बन

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