Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 21
________________ १८, वर्ष २७, कि० १ अनेकान्त ध्यानस्थ हैं। उसने स्वामी स्वामी कहकर अनेक बार है। किन्तु यह मानव मन का भावात्मक पक्ष है। जब तक पुकारा, किन्तु वहां सुनने की सुध किसे थी ? राजुल सप्तपदी न हो, नारी कंबारी ही समझी जाती है। तब समाधि टूटने की प्रतीक्षा में हाथ बांधे खड़ी रही। अपने हम दोनों तो लग्न मण्डप में भी एकत्र नहीं हो पाए थे। स्वामी के उर्जास्थित मुख मण्डल को देखते ही उसके नारी अतएव सामाजिक नियमों के अनुसार माज भी माप विवाह हृदय का महम चूर-चूर हो गया। पाथिव संकल्प टूट गए करने के लिए स्वतन्त्र है। एक पवित्र विचारधारा उसके हृदय मे कोंब उठी, तभी राजुल ने कहा-नहीं, प्रभो, नहीं। इस जीवन में नेम प्रभु की समाधि टूटी। नासिकान से दृष्टि हटी। अब यह सम्भव नही, महाप्रभु ही विवाह कर मेरा उद्धार देखा, शोभन, वस्त्रालंकारों से सजी एक सौन्दर्य शलाका करें। प्रभु के महान् त्याग से जूनागढ़ राज्य के सभी सामने खड़ी है। प्रभु बोले--कंटकाकीर्ण मार्ग चल- प्रजा जन अहिंसा के अनन्य उपासक हो गए है। सभी कर इस निर्जन वन मे पाने का प्रयोजन क्या है पशुओ को मुक्त कर दिया गया है । सभी ने माम न खाने देवी? का आजीवन व्रत ले लिया है । देव, ससार मे रह कर भी राजल नारी सुलभ-भकूटि-विलास अधरो का कुटिल अहिसा के चिरन्तन शीर्ष की प्राप्ति हो सकती है। हास्य, नयनों की मधुर चितवन जैसे सब भूल गयी । 'देवि'-प्रभु ने प्रशान्त स्वर मे कहा—केवल जूनास्वामी के प्रथम दर्शन से ही नारी सुलभ हाव भाव न गढ़ राज्य के अहिसा के पुजारी होने से मेरे लक्ष्य की पूर्ति जानेकहा तिरोहित हो गए उसने सहज सरलता से कहा- नही होगी। समस्त विश्व मे अहिंसा की दिव्य ज्योति का नाथ मैं राजुल हूं, आपकी पत्नी। निष्कलुष अनासक्त प्रसार मेरा परम लक्ष्य है, अतः जो पथ मैने स्वीकार किया भाव से प्रभ ने कहा-देवि मैंने पार्थव मार्ग छोड़ दिया है, उसका त्याग अब सम्भव नहीं। है । ऐहिक सुखोपभोग को त्याग दिया है। वैवाहिक भाव राजुल ने कहा-किन्तु देह को भी तो भुलाया नहीं और तज्जनित भोग विलासों को मैंने तिलाञ्जलि दे दी जा सकेगा देव ! है। नारी का पत्नी भाव मेरे हृदय से तिरोहित हो गया 'देवि'–महाप्रभु ने कहा-मैंने अनुभव किया है कि है। संसार की समस्त नारियां मेरी भग्नियाँ तथा पुत्रियां देह से आत्मा पृथक् है। इन्द्रिय जनित सुख-दुख भ्राति है। अब सब मेरे लिए पूजनीय और श्रद्धास्पद है मैं दिग. मात्र है। अहिंसा के दिव्य ज्ञान को प्राप्त करना परम म्बर श्रमण हूं। मेरे लिए बाह्य सुख-दुख, जीवन-मरण, आवश्यक है। वह तभी प्राप्त हो सकता है, जब हम तथा हानि-लाभ मब समान है। देवी अभिलाषा पूरी न पार्थिव सुखो का त्याग कर दे और प्रात्मशक्ति को उपकर सकगा। आप यथा स्थान लौट जाए। लब्ध करने के लिए घोर तपश्चर्या करें। राजल ने विनम्र होकर कहा-महा प्रभु, नारी राजुल ने दृढ़तापूर्वक कहा-यदि संसार के सूख संकल्प पर जीती है। जीवन में जो सकल्प वह कर लेती भ्रामक है तो देव, फिर अनादि काल से इस सुख के पीछे है, उसे वह आजीवन प्राणप्रन से निभाती है। जब मैने प्राणी मात्र पागल क्यों है। भ्रामक सुखों की दीवार सना कि मेरा जीवन सूत्र देव के जीवन सूत्र में बंधने जा अनन्त काल से ज्यों की त्यो क्यों खड़ी है ? ससार का रहा है तभी मेरी आत्मा ने आपका वरण कर लिया था। मार्ग ही मिथ्या है तो भाई, बहिन, पुत्र, मां और पत्नी उसी प्राणवल्लभ के मौलिक रूप और आत्मिकभाव का के सम्बन्ध युगों-युगों से अभी तक क्यों जीवित है ? पूजन करने का शाश्वत संकल्प मैंने ले लिया है । अब उस देव संसार छलना नहीं है। सामाजिक शील में बध कर सकल्प से कोई मुझे डिगा नहीं सकता। पति रूप में एक सांसारिक सुखों का उपयोग ही धर्म है। देव संसार से पुरुष को स्वीकार कर लेने के पश्चात् दूसरे पुरुष की विरक्त होने का अर्थ है, संसार के कष्टों से भयभीत होकर अभिलाषा व्यभिचार मात्र है। उससे पलायन करना, कष्टों से दूर भागने का अर्थ है प्रभु ने गम्भीर स्वर में कहा-देवी का कथन सत्य कायरता

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